यहाँ तक तो भक्ति और शील का समन्वय हुआ; अब ज्ञान और भक्ति का समन्वय देखिए। गरुड़ को समझाते हुए काक भुशुंडि कहते हैं——
"ज्ञानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा।"
साध्य की एकता से भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं——
उभय हरहिं भव-संभव खेदा।
पहले कहा जा चुका है कि शक्ति, शील और सौंदर्य की परा- काष्ठा भगवान् का व्यक्त या सगुण स्वरूप है। इनमें से सौंदर्य और शील भगवान् के लोक-पालन और लोक-रंजन के लक्षण हैं और शक्ति उद्भव और लय का लक्षण है। जिस शक्ति की अनंतता पर भक्त केवल चकित होकर रह जायगा, ज्ञानी उसके मूल तक जाने के लिये उत्सुक होगा। ईश्वर ज्ञान-स्वरूप है, अत: ज्ञान के प्रति यह औत्सुक्य भी ईश्वर ही के प्रति है। यह औत्सुक्य भी भक्ति के समान एक 'भाव' ही है, या यों कहिए कि भक्ति का ही एक रूप है—पर एक ऐसे कठिन क्षेत्र की ओर ले जानेवाला जिसमें कोई बिरला ही ठहर सकता है——
ग्यानपंथ कृपान कै धारा। परत, खगेस! होइ नहिं बारा॥
जो इस कठिन ज्ञानपथ पर निरंतर चला जायगा, उसी को अंत
में “सोऽहमस्मि" का अनुभव प्राप्त होगा। पर इस "सोऽहमस्मि"
की अखंड वृत्ति तक प्राप्त होने की कठिनता गोस्वामीजी ने बड़ा
ही लंबा और पेचीला रूपक बाँधकर दिखाई है। इस तत्त्व की
सम्यक्प्राप्ति के पहले सेव्य-सेवक भाव का त्याग अत्यंत अनर्थकारी
और दोषजनक है। इसी से गोस्वामीजी सिद्धांत करते हैं कि——