-सारा गोस्वामी तुलसीदास ऐसा किया है; यह दिखाने के लिये नहीं कि भक्ति और सदाचार से कोई संबंध ही नहीं है और पाप करता हुआ भी मनुष्य भक्त कहला सकता है। पापियों के उद्धार का मतलब पापियों का सुधार है-ऐसा सुधार जिससे लोक और परलोक दोनों बन सकते हैं। गोस्वामीजी द्वारा प्रतिपादित रामभक्ति वह भाव है जिसका संचार होते ही अंत:करण बिना कष्ट के शुद्ध हो जाता है- कल्मष, सारी मलिनता आपसे आप छूटने लगती है। अंत:करण की पूर्ण शुद्धि भक्ति के बिना नहीं हो सकती, अपना यह सिद्धांत उन्होंने कई जगह प्रकट किया है- नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन विषय सँग लागे । हृदय मलिन बासना मान मद जीव सहज सुख त्यागे । पर-निंदा सुनि स्रवन मलिन भए, बदन दोष पर गाए । सब प्रकार मल-भार लाग निज नाथ चरन बिसराए । तुलसिदास ब्रत दान ग्यान तप सुद्धि हेतु त्रुति गावै । रामचरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै॥ जब तक भक्ति न हो तब तक सदाचार को गोसाईजी स्थायी नहीं समझते। मनुष्य के आचरण में शुद्ध ज्ञान द्वारा वह दृढ़ता नहीं आ सकती जो भक्ति द्वारा प्राप्त होती है- कबहुँ जोगरत भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई । कबहुँ मोह-बस दोह करत बहु कबहुँ दया अति साई ॥ कबहुँ दीन मतिहीन रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी । कबहुँ मूल, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धरमरत ग्यानी ॥ संजम जप तप नेम धरम ब्रत बहु भेषज समुदाई । तुलसिदास भवरोग रामपद-प्रेम-हीन नहि जाई ।। इसी से उन्होंने भक्ति के बिना शील आदि सब गुणों को निरा- धार और नीरस कहा है-
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