गोस्वामी तुलसीदास परिहरि देह-जनित चिंता, दुख सुख समबुद्धि सहैं।गो। तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहैं।गो॥ शील-साधना की इस उच्च भूमि में पाठक देख सकते हैं कि विरति या वैराग्य आप से आप मिला हुआ है। पर लोक-कर्त्तव्यों से विमुख करनेवाला वैराग्य नहीं-परहित-चिंतन से अलग करनेवाला वैराग्य नहीं- अपनी पृथक् प्रतीत होती हुई सत्ता को लोकसत्ता के भीतर लय कर देनेवाला वैराग्य, अपनी 'देह-जनित चिता' से अलग करनेवाला वैराग्य। भगवान् ने उत्तरकांड में संतों के संबंध में जो "त्यागहि करम सुभासुभदायक" कहा है, वह पर- हित" का विरोधी नहीं है। वह गीता में उपदिष्ट निर्लिप्त कर्म का बोधक है । जब साधक भक्ति द्वारा अपनी व्यक्ति का लोक में लय कर चुका, जब फलासक्ति रह ही न गई, तब उसे कर्म स्पर्श कहाँ से करेंगे? उसने अपनी पृथक् प्रतीत होती हुई सत्ता का लोक-सत्ता में भगवान् की व्यक्त सत्ता में मिला दिया। भक्ति द्वारा अपनी व्यक्त सत्ता को भगवान् की व्यक्त सत्ता में मिलाना मनुष्य के लिये जितना सुगम है उतना ज्ञान द्वारा ब्रह्म की अव्यक्त सत्ता में अपनी व्यक्त सत्ता को मिलाना नहीं। संसार में रहकर इंद्रियार्थों का निषेध असंभव है; अत: मनुष्य को वह मार्ग ढूँढ़ना चाहिए जिसमें इंद्रियार्थ अनर्थकारी न हों। यह भक्ति-मार्ग है, जिसमें इंद्रियार्थ भी मंगलप्रद हो जाते हैं- बिर्षायन्ह कह पुनि हरिगुनग्रामा । स्रवन सुखद अरु मन अभिरामा । इस प्रकार अपनी व्यक्ति को लोक में लय करना राम में अपने को लय करना है क्योंकि यह जगत् 'सियाराममय है। जब हम मंसार के लिये वही करते हुए पाए जाते हैं जो वह अपने लिये कर रहा -वह करते हुए नहीं जिसका लक्ष्य उसके लक्ष्य से अलगया
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