पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६७

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शील- साधना और भक्ति

शील-साधना और भक्ति ६३ उसमें यदि बल, पराक्रम आदि भी दिखाई दे तो उस वल-पराक्रम के महत्त्व का अनुभव हृदय बड़े आनंद से करता है। गोस्वामीजी ने राम के अलौकिक सौंदर्य का दर्शन कराने के साथ ही उनकी अलौकिक शक्ति का भी साक्षात्कार कराया है। ईश्वरावतार उस राम से बढ़कर शक्तिमान् विश्व में कौन हो सकता है 'लव निमेष पर. मान जुग, काल जासु कोदंड ।" इस अनंत सौंदर्य और अनंत शक्ति में अनंत शील की योजना हो जाने से भगवान् का सगुण रूप पूर्ण हो जाता है। 'शोल' तक पाने का कैसा सुगम और मनोहर मार्ग बाबाजी ने तैयार किया है ! सौंदर्य के प्रभाव से हृदय को वशीभूत करके शक्ति के अलौकिक प्रदर्शन से उसे चकित करते हुए अंत में वे उसे 'शील' या 'धर्म' के रमणोय रूप की ओर प्राप से आप आकर्षित होने के लिये छोड़ देते हैं जब इस शील के मनोहर रूप की ओर मनुष्य आकर्षित हो जाता है और अपनी वृत्तियों को उसके मेल में देखना चाहता है, तब जाकर वह भक्ति का अधिकारी होता है। जो केवल बाह्य सौंदर्य पर मुग्ध होकर और अपूर्व शक्ति पर चकित होकर ही रह गया, 'शील' की ओर आकर्षित होकर उसकी साधना में तत्पर न हुआ, वह भक्ति का अधिकारी न हुआ। इस अविकार-प्राप्ति की उत्कंठा गोस्वामीजी ने कैसे स्पष्ट शब्दों में प्रकट की है, देखिए- श्री - कबहुँक हो यहि रहनि रहांगो ? रघुनाथ कृपालु कृपा त संत-सुभाव गहोंगो ॥ यथा लाभ संतोष सदा, काहू सैों कछु न चहैं।गो । परहित-निरत निरंतर मन बचन नेम निबहाँगो । परुष बचन अति दुसह श्रवण सुनि तेहि पावक न दहोंगी। बिगत मान, सम सीतल मन, पर गुन, नहिं दोख, कहाँगो ।। क्रम