गोस्वामी तुलसीदास अधिकतर तो अपने ऐसे और विरक्तों के वैराग्य को दृढ़ करने के लिये; और कुछ लोक की अत्यंत आसक्ति को कम करने के विचार से। उन्होंने प्रत्येक श्रेणी के मनुष्यों के लिये कुछ न कुछ कहा है। उनकी कुछ बाते तो विरक्त साधुओं के लिये हैं, कुछ साधारण गृहस्थों के लिये, कुछ विद्वानों और पंडितों के लिये । अत: स्त्रियों को जो स्थान स्थान पर बुरा कहा है, उसका ठोक तात्पर्य यह नहीं कि वे सचमुच वैसी ही होती हैं, बल्कि यह मतलब है कि उनमें आसक्त होने से बचने के लिये उन्हें वैसा ही मान लेना चाहिए। किसी वस्तु से विरक्त करना जिसका उद्देश्य है, वह अपने उद्देश्य का साधन उसे बुरा कहकर ही कर सकता है। अत: स्त्रियों के संबंध में गोस्वामीजी ने जो कहा है, वह सिद्धांत-वाक्य नहीं है, अर्थवाद मात्र है। पर उद्दिष्ट प्रभाव उत्पन्न करने के लिये इस युक्ति का अवलंबन गोम्वामीजी ऐसे उदार और सरल-प्रकृति कं महात्मा के लिये सर्वथा उचित था, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं-निंदा से उनका जी दुख सकता है। स्त्रियों से काम उत्पन्न होता है, धन से लोभ उत्पन्न होता है, प्रभुता से मद उत्पन्न होता है; इसलिये काम, मद, लोभ आदि से बचने की उत्तेजना उत्पन्न करने के लिये वैराग्य का उपदेश देनेवाले कंचन, कामिनी और प्रभुत्व की निंदा कर दिया करते हैं । बस इसी रीति का पालन बाबाजी ने भी किया है। वे थे तो वैरागी ही। यदि कोई संन्यासिनी अपनी बहिनों को काम क्रोध आदि से बचने का उपदेश देने बैठे तो पुरुषों को इसी प्रकार 'अपावन' और 'सब अवगुणों की खान' कह सकती है ! पुरुष-पतंगों के लिये गोस्वामीजी ने स्त्रियों को जिस प्रकार दीपशिखा कहा है, उसी प्रकार स्त्री-पतंगियों के लिये वह पुरुषों को भाड़ कहेगी। सिद्धांत और अर्थवाद में भेद न समझने के कारण ही गोस्वामीजी की बहुत सी उक्तियों को लेकर लोग परस्पर विरोध आदि दिखाया
पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५६
गोस्वामी तुलसीदास