५४ गोस्वामी तुलसीदास जब कि दुनिया एक मुँह से तुलसी को बुरा कह रही है तब उन्हें अपनाने का विचार करके राम बड़े असमंजस में पड़ेंगे। तुलसी के राम स्वेच्छाचारी शासक नहीं; वे लोक के वशीभूत हैं क्योंकि लोक भी वास्तव में उन्हीं का व्यक्त विस्तार है। अब तक जो कुछ कहा गया, उससे गोस्वामीजी व्यक्तिवाद (Individualism) के विरोधी और लोकवाद (Socialism) के समर्थक से लगते हैं। व्यक्तिवाद के विरुद्ध उनकी ध्वनि स्थान स्थान पर सुनाई पड़ती है; जैसे- (क) मारग सोइ जा कह जो भावा । (ख) स्वारथ-सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार । पर उनके लोकवाद की भी मर्यादा है। उनका लोकवाद वह लोकवाद नहीं है, जिसका अकांड तांडव रूस में हो रहा है। वे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण नहीं चाहते जिसमें व्यक्ति इच्छानुसार हाथ-पैर भी न हिला सके; अपने श्रम, शक्ति और गुण का अपने लिये कोई फल ही न देख सके। वे व्यक्ति के आचरण का इतना ही प्रतिबंध चाहते हैं जितने से दूसरों के जीवन-मार्ग में बाधा न पड़े और हृदय की उदात्त वृत्तियों के साथ लौकिक संबंधों का साम- जस्य बना रहे । राजा-प्रजा, उच्च-नीच, धनी-दरिद्र, सबल-निर्बल, शास्य-शासक, मूर्ख-पंडित, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र इत्यादि भेदों के कारण जी अनेकरूपात्मक संबंध प्रतिष्ठित हैं, उनके निर्वाह के अनुकूल मन ( भाव ), वचन और कर्म की व्यवस्था ही उनका लक्ष्य है; क्योंकि इन संबंधों के सम्यक् निर्वाह से ही वे सबका कल्याण मानते हैं। इन संबंधों की उपेक्षा करनेवाले व्यक्ति-प्राधान्य- वाद के वे अवश्य विरोधी हैं। समाज की इस आदर्श व्यवस्था के बीच स्त्रियों और शूद्रों का स्थान क्या है, आजकल के सुधारक इसका पता लगाना बहुत
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