लोक-नीति और मर्यादावाद गोस्वामीजी का समाज का आदर्श वही है जिसका निरूपण वेद, पुराण. स्मृति आदि में है; अर्थात् वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा । प्रोत्साहन और प्रतिबंध द्वारा मन, वचन और कर्म को व्यवस्थित रखनेवाला तत्व धर्म है जो दो प्रकार का है-साधारण और विशेष । मनुष्य मात्र का मनुष्य मात्र के प्रति जो सामान्य कर्त्तव्य होता है, उसके अतिरिक्त स्थिति या व्यवसाय-विशेष के अनुसार भी मनुष्य कं कुछ कर्तव्य होते हैं। जैसे माता-पिता के प्रति पुत्र का, पुत्र के प्रति पिता का, राजा के प्रति प्रजा का, गुरु के प्रति शिष्य का, ग्राहक के प्रति दूकानदार का, छोटों के प्रति बड़ों का इत्यादि इत्यादि। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ी है, समाज में वर्ण-विधान हुआ है, त्यो त्यों इन धर्मों का विस्तार होता गया है। पारिवारिक जीवन में से निकलकर समाज में जाकर उनकी अनेक रूपों में प्रतिष्ठा हुई है। संसार के और देशों में जो मत प्रवर्तित हुए, उनमें 'साधारण धर्म' का ही पूर्ण समावेश हो सका, विशेष धर्मों की बहुत कम व्यवस्था हुई। पर सरस्वती और दृशद्वती के तटों पर पल्लवित आर्य-सभ्यता के अंतर्गत जिस धर्म का प्रकाश हुआ, विशेष धर्मों की विस्तृत व्यवस्था उसका लक्षण हुआ और वह वर्णाश्रम-धर्म कहलाया । उसमें लोक-संचालन के लिये ज्ञानबल, बाहुबल, धनबल और सेवा- बल्ल का सामंजस्य घटित हुआ जिसके अनुसार केवल कर्मों की ही नहीं, वाणी और भाव की भी व्यवस्था की गई। जिस प्रकार ब्राह्मण के धर्म पठन-पाठन, तत्त्वचिंतन, यज्ञादि हुए, उसी प्रकार शांत और मृदु वचन तथा उपकार-बुद्धि, नम्रता, दया, क्षमा आदि भावों का अभ्यास भी क्षत्रियों के लिये जिस प्रकार शस्त्र-ग्रहण .
पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/४८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
लोक- नीति और मर्यादाबाद