पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/४५

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धर्म जातीयता का समन्वय

धर्म और जातीयता का समन्वय 4 स्थिति में देखती आई, उन्हें छोड़ना अपने प्रिय से प्रिय परिजन को छोड़ने से कम कष्टकर न था। विदेशी कच्चा रंग एक चढ़ा एक छूटा, पर भीतर जो पक्का रंग था वह बना रहा। हमने चौड़ा मोहरी का पायजामा पहना, आदाब अर्ज किया, पर 'राम रान' न छोड़ा। अब कोट-पतलून पहनकर बाहर "डेम नान्सेंस" कहते हैं पर घर में आते ही फिर वही 'राम राम'। शीरी-फरहाद और हातिम. ताई के किस्से के सामने हम कर्ण, युधिष्ठिर नल, दमयंती सबको भूल गए थे. पर राम-चर्चा कुछ करते रहे। कहना न होगा कि इस एक को न छेड़ने से एक प्रकार से सब कुछ बना रहा; क्योंकि इसी एक नाम में हिदू-जीवन का सारा सार खींचकर रख दिया गया था। इसी एक नाम के अवलंब से हिदू-जाति के लिये अपने प्राचीन स्वरूप, अपने प्राचीन गौरव के स्मरण की संभावना बनी रही। रामनामामृत पान करके हिदू-जाति अमर हो गई। इस अमृत को घर घर पहुँचानेवाला भी अमर है। आज जो हम बहुत से 'भारतीय हृदयों' को चीरकर देखते हैं, तो वे अभारतीय निकलते पर एक इसी कवि-केसरी को भारतीय सभ्यता, भारतीय रीति-नीति की रक्षा के लिये सबके हृदय-द्वार पर अड़ा देख हम निराश होने से बच जाते हैं।