9 ब्रज के ३२ गोस्वामी तुलसीदास उपासना असभ्य दशा में प्रचलित हुई, वे "अनिष्टदेव" थे। आगे चलकर जब परिस्थिति ने दुःख-निवारण मात्र से कुछ अधिक सुख की आकांक्षा का अवकाश दिया, तब साथ ही देवों के सुख-समृद्धि- विधायक रूप की प्रतिष्ठा हुई। यह 'इष्टानिष्ट' भावना बहुत काल तक रही। वैदिक देवताओं को हम इसी रूप में पाते हैं । वे पूजा पाने से प्रसन्न होकर धन, धान्य, ऐश्वर्य, विजय सब कुछ देते थे; पूजा न पाने पर कोप करते थे और घोर अनिष्ट करते थे गोपों ने जब इंद्र की पूजा बंद कर दी थी, तब इंद्र ने ऐसा ही कोप किया था। उसी काल से 'इष्टानिष्ट' काल की समाप्ति माननी चाहिए। समाज के पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित हो जाने के साथ ही मनुष्य के कुछ आचरण लोकरक्षा के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल दिखाई पड़ गए थे। 'इष्टानिष्ट' काल के पूर्व ही लोक-धर्म और शील की प्रतिष्टा समाज में हो चुकी थी; पर उनका संबंध प्रचलित देवताओं के साथ नहीं स्थापित हुआ था। देवगण धर्म और शील से प्रसन्न होनेवाले, अधर्म और दुःशीलता पर कोप करनेवाले नहीं हुए थे; वे अपनी पूजा से प्रसन्न होनेवाले और उस पूजा में त्रुटि से ही अप्रसन्न होनेवाले बने थे। ज्ञानमार्ग की ओर एक ब्रह्म का निरू-, पण बहुत पहले से हो चुका था, पर वह ब्रह्म लोक व्यवहार से तटस्य था। लौकिक उपासना के योग्य वह नहीं था , धीरे धोरे उसके व्यावहारिक रूप, सगुण रूप, की तीन रूपों में प्रतिष्ठा हुई- स्रष्टा, पालक और संहारक । उधर स्थिति-रक्षा का विधान करने- वाले धर्म और शील के नाना रूपों की अभिव्यक्ति पर जनता पूर्ण रूप से मुग्ध हो चुकी थी। उसने चट दया, दाक्षिण्य, क्षमा, उदारता. वत्सलता. सुशीलता आदि उदात्त वृत्तियों का आरोप ब्रह्म के लोक-पालक सगुण स्वरूप में किया । लोक में 'इष्टदेव' की प्रतिष्ठा , .
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गोस्वामी तुलसीदास