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गोस्वामी तुलसीदास

करके भी वे उनसे अनुग्रह की आशा नहीं रखते, क्योंकि अनुग्रह करना तो उनका स्वभाव ही नहीं-

बायस पालिय अति अनुरागा। होहि निरामिष कबहुँ कि कागा ॥

राम के सामने तो उन्हें अपने ऐसा कोई खल ही संसार में नहीं दिखाई देता, उनके सामने तो वे कदापि यह नहीं कह सकते कि क्या मैं उससे भी खल हूँ। यहाँ ते वे "सब पतितो के नायक" बन जाते हैं। पर जब खलों से वास्ता पड़ता है, तब उनके सामने वे अपना लघुत्व-प्रदर्शन नहीं करते, उन्हें कौवा कहते हैं और आप कोयल बनते हैं-

खल-परिहास होहि हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।

जब तक 'साधना' के एकांत क्षेत्र में रहते हैं, तब तक तो वे अपने सात्त्विक भावों को ऊँचे चढ़ाते चले जाते हैं, पर जब व्यवहार- क्षेत्र में आते हैं, तब उन्हें कम से कम अपने वचनों का सामंजस्य लोक-धर्म के अनुसार संसार की विविध वृत्तियों के साथ करना पड़ता है। पर इससे उनके अंत:करण में कुछ भी मलिनता नहीं आती, व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या-द्वेष का उदय नहीं होने पाता। द्वेष उन्हें दुष्कर्म से है, व्यक्ति से नहीं। भारो से भारी खल के संबंध में भी उनकी बुद्धि ऐसी नहीं हो सकती कि अवसर मिलता इसकी कुछ हानि करते।

सबसे अधिक चिढ़ उन्हें 'पाषंड' और 'अनधिकार-चर्चा' से थी। खलों के साथ समझौता तो वे अपने मन को इस तरह समझाकर कि-

सुधा सुरा सम साधु साधू। जनक एक जग-जलधि अगाधू ॥ बड़ी जल्दी कर लेते हैं, पर 'पाषंडियों' और बिना समझी- बूझी बातें बककर अपने को ज्ञानी प्रकट करनेवालों से उनकी विधि नहीं बैठती थी। उनकी बातें सुनते वे चिढ़ जाते थे और कभी