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प्रकृति और स्वभाव


जिस भक्ति-पद्धति में लोक-धर्म की उपेक्षा हो, जिसके भीतर समाज के श्रद्धापात्रों के प्रति द्वेष छिपा हो, उसकी निंदा करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया है।

'विश्वास' के संबंध में भी उनकी प्रायः वही धारणा समझिए जो उपासना के संबंध में है। यदि विश्वास का आलंबन वैसा श्रेष्ठ और सात्त्विक नहीं है तो उसे वे 'अंध-विश्वास' मानते हैं-

लही अखि कब आंघरे, बांझ पूत कब पाय ।
कब कोड़ी काया लही, जन बहराइच जाय ।।

तुलसी के ऐसे पहुँचे हुए भक्त के दैन्य और विनय के विषय में तो कहना ही क्या है ? सारी विनय पत्रिका इन दोनों भावों के अपूर्व उद्गारों से भरी हुई है । 'रामचरित-मानस' ऐसा अमर कीर्त्ति- स्तंभ खड़ा करते समय भी उनका ध्यान अपनी लघुता पर से न हटा। वे यही कहते रहे-

कबि न होउँ, नहिं चतुर प्रबोना । सकल कला सब बिद्या-हीना।।
कबित बिबेक एक नहिं मारे । सत्य कहैं। लिखि कागद कोरे ॥
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धिग धर्मध्वज धँधरक धोरी॥
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥

पर यह भी समझ रखना चाहिए कि 'लघुत्व' की यह परमा- नुभूति परम महत्त्व के साक्षात्कार के कारण थी । अत: लोक-व्यव- हार के भीतर उसका कितना अंश समा सकता था, इसका विचार भी हमें रखना पड़ता है । दुष्टों और खलों के सामने उसकी उतनी मात्रा नहीं रह सकती थी, जो गोस्वामीजी को उन्हें दुष्ट और खल कहने तथा उनके स्वरूप पर ध्यान देने से रोक देती। साधुओं की वंदना से छुट्टी पाते ही वे खलों को याद करते हैं। उनकी वंदना