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प्रकृति और स्वभाव


हिदी के राजाश्रित कवि प्रायः अपना और अपने आश्रयदाताओं का कुछ परिचय अपनी पुस्तकों में दे दिया करते थे। पर भक्त कवि इसकी आवश्यकता नहीं समझते थे। तुलसीदासजी ने भी अपना कुछ वृत्तांत कहीं नहीं लिखा । अपने जीवनवृत्त का जो किचित् आभास उन्होंने कवितावली और विनय-पत्रिका में दिया है वह केवल अपनी दीनता दिखाने के लिये। किसी किसी ग्रंथ का समय भी उन्होंने लिख दिया है। उनके जीवन-वृत्त के संबंध में लोगों की जिज्ञासा यों ही रह जाती है। दूसरे ग्रंथों और कुछ किंवदंतियों से जो कुछ पता चलता है उसी पर संतोष करना पड़ता है। उनके जीवन-वृत्त- संबंधी दो ग्रंथ कहे जाते हैं- (१) बाबा बेनीमाधवदास का 'गोसाई- चरित'. (२) रघुबरदासजी का 'तुलसी-चरित'। पहला ग्रंथ-अथवा उसका संक्षिप्त रूप-नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित'रामचरित-मानस' के एक संस्करण के साथ छप चुका है। पर उसमें लिखी अधिकतर बातें निश्चित ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध पड़ती हैं। दूसरा ग्रंथ कहीं पूरा प्रकाशित नहीं हुआ है। हमारी समझ में ये दोनों पुस्तकें गोस्वामीजी के बहुत पीछे श्रुति-परंपरा के आधार पर लिखी गई हैं इनमें सत्य का कुछ अंश मात्र कल्पित बातों के बीच छिपा हुआ माना जा सकता है। अतः गोस्वामीजी की प्रकृति का परिचय प्राप्त करने के लिये हमें उनके वचनों का ही सहारा लेना पड़ता है।

उनकी भक्ति के स्वरूप का जो थोड़ा आभास ऊपर दिया गया है उससे स्पष्ट है कि वह भक्ति केवल व्यक्तिगत एकांत साधना के रूप में नहीं है; व्यवहार-क्षेत्र के भीतर लोक-मंगल की प्रेरणा करनेवाली है। अत: उसमें ऐसे ही उपास्य की भावना हो सकती है जो व्याव-