पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१८५

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गोस्वामी तुलसीदास सीतल सुखद छांह जेहि कर की मेटति पाप ताप माया । निसि-वासर तेहि कर-सरोज की चाहत तुलसिहास छाया ।। कैसा सुव्यवस्थित वाक्य है । और कवियों के साथ तो तुलसी का मिलान ही क्या। 'वाक्य दोष' हिंदी में भी हो सकते हैं, इसका ध्यान तो बहुत कम लोगों को रहा। सूरदासजी भी इस बात में तुलसी से बहुत दूर हैं। उनके वाक्य कहीं कहीं उखड़े से हैं, उनमें वह संबंध-व्यवस्था नहीं है। उनके पदों के कुछ अंश नीचे नमूने के लिये दिए जाते हैं- (क) श्रवण चीर अरु जटा बँधावहु ये दुख कौन समाहीं। चंदन तजि अँग भस्म बतावत बिरह-अनल अति दाहीं ॥ (ख) कै कहुँ रंक, कहूँ ईश्वरता नट बाजीगर जैसे। चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे ॥ (ग) भाव-भक्ति जहँ हरि-जस सुनयो तहाँ जात अलसाई । लेभातुर है काम-मनारथ तहाँ सुनत उठि धाई ॥ इस प्रकार की शिथिलता तुलसीदासजी में कहीं न मिलेगी। लिंग आदि का भी सूरदासजी ने कम ध्यान रखा है; जैसे- कागरूप इक दनुज धरयो। बीत्यो जाय ज्वाब जब आयो सुनहु केस तेरो आयु सर्यो । इसी प्रकार तुकांत और छंद के लिये शब्दों के रूप भी सूरदास- जी ने बहुत बिगाड़े हैं; जैसे- (क) पलित केस, कफ कंठ बिरोध्यो, कल न परी दिन-राती । माया-मोह न छोड़े तृष्णा, ये दोऊ दुरू-दातो । (ख) राम भक्त-वत्सल निज बाना। राजस्य में चरन पखारे स्याम लिए कर पाना। क्या यह कहने की आवश्यकता है कि तुलसीदासजी को यह सब करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है ? लिंग-भेद में तो एक एक मात्रा का उन्होंने ध्यान रखा है-