१८२ गोस्वामी तुलसीदास सा लक्षित होता है, वह हृदय पर किस शक्ति के साथ प्रभाव डालता है! राम के वन चले जाने पर कौशल्या दुःख से विह्वल होकर कहती हैं- "हैं। घर रहि मसान-पाव ज्यों नरिवोइ तक दह्यो है"। कौशल्या को घर श्मशान का लग रहा है। इस श्मशान की अग्नि में कौशल्या को भस्म हो जाना चाहिए था। पर वे कहती हैं कि इस अग्नि में भस्म होना चाहिए था मुझे, पर जान पड़ता है कि मैंने अपनी मृत्यु का शव ही इसमें जलाया है। भाव तो यही है कि मुझे मृत्यु भी नहीं आती, पर अनूठे ढंग से व्यक्त किया गया है। ऐसी ऐसी उक्तियों के लिये अँगरेज महाकवि शेक्सपियर प्रसिद्ध हैं। अब कौशल्याजी मरतों क्यों नहीं, इसका कारण उन्हीं के मुख से सुनिए- लगे रहत मेरे नयननि अागे राम-लधन अरु सीता । ..
दुख न हैं रघुपतिहि बिलोकत, मनु न रहै बिनु देखे ।। राम-लक्ष्मण की मूर्ति हृदय से हटती ही नहीं, बिना उनकी मूर्ति सामने लाए मन से रहा ही नहीं जाता। और जब उनकी मूर्ति मन के सामने आ जाती है तब दुःख नहीं रह जाता । मरें तो कैसे मरें? एक और उक्ति सुनिए, जो है तो साधारण ही, पर एक अपूर्वता के साथ- "कियो न कछू, करियो न कछू, कहियो न कछू, मरिबोइ रह्यो है”। और सब काम तो मैं कर चुका, मरने का काम भर और रह गया है। किसी अँगरेज कवि ने भी कहीं इसी भाव से कहा है-