उक्ति-वैचित्र्य , . उक्ति-वैचित्र्य से यहाँ हमारा अभिप्राय उस बे पर की उड़ान से नहीं है जिसके प्रभाव से कवि लोग जहाँ रवि भी नहीं पहुँचता, वहाँ से अपनी उत्प्रेक्षा, उपमा आदि के लिये सामग्री लिया करते हैं। मेरा अभिप्राय कथन के उस अनूठे ढंग से है जो उस कथन की ओर श्रोता को आकर्षित करता है तथा उसके विषय को मार्मिक और प्रभावशाली बना देता है। ऐसी उक्तियों में कुछ तो शब्द की लक्षणा-व्यंजना-शक्ति का आश्रय लिया जाता है और कुछ काकु, पर्यायोक्ति ऐसे अलंकारों का। ऐसी उक्तियाँ गोस्वामीजी की रच- नाओं में भरी पड़ी हैं; अत: केवल दो-चार का दिग्दर्शन ही यहाँ हो सकता है। राम की शोभा वर्णन करते हुए एक स्थान पर कवि कहता है- ‘मनहुँ उमगि अँग अँग छबि छत्तकै"। इस 'छलकै' शब्द में कितनी शक्ति है ! यह व्यापार को कैसा गोचर रूप प्रदान करता है ! इसका वाच्यार्थ अत्यंत तिरस्कृत है। लक्षणा से इसका अर्थ होता है- "प्रभूत परिमाण में प्रकट होना"। पर 'अभिधा' द्वारा इस प्रकार कहने से वैसी तीव्र अनुभूति नहीं उत्पन्न हो सकती। 'विनय-पत्रिका' में गोस्वामोजी राम से कहते हैं- "हैं। सनाथ ह्र हैं। सही,तुमहूँ अनाथ-पति जो लघुतहि न मितेहै।"। 'लघुता से भयभीत होना' कैसी विलक्षण उक्ति है, पर साथ ही कितनी सच्ची है ! शानदार अमीर लोग गरीबों से क्यों नहीं बात- चीत करते ? उनकी 'लघुता' ही के भय से न ? वे यही न डरते हैं कि इतने छोटे आदमी के साथ बातचीत करते लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे। अत: लघुता से भयभीत होने में जो एक प्रकार का विरोध
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