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गोस्वामी तुलसीदास
जिस प्रकार मद, प्याला. मूर्छा और उन्माद सूफो रहस्य-वादियों का एक लक्षण है उसी प्रकार प्रियतम ईश्वर के विरह की बहुत बढ़ी-चढ़ी भाषा में व्यंजना करना भी सूफी कवियों की एक रूढ़ि है। यह रूढ़ि भारतीय भक्त कवियों के विनय में न पाई जायगी। भारतीय भक्त तो अपनी व्यक्तिगत सत्ता के बाहर सर्वत्र भगवान् का नित्य-लीला-क्षेत्र देखता है। उसके लिये विरह कैसा?
अपनी भक्ति-पद्धति के भीतर गोस्वामीजी ने किस प्रकार शील
और सदाचार को भी एक आवश्यक अंग के रूप में लिया है, यह बात "शील-साधना और भक्ति" के अंतर्गत दिखाई जायगी।