पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१७६

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गोस्वामी तुलसीदास ( वेद = श्रुति = कान । आकाश = स्वर्ग = नाक । ) गोस्वामीजी की रचना में बहुत से स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ यह निश्चय करने में गड़बड़ी हो सकती है कि यहाँ अलंकार है या भाव। इसकी संभावना वहीं होगी जहाँ स्मरण, संदेह और भ्रांति का वर्णन होगा। स्मरण का यह उदाहरण लीजिए- बीच बास करि जमुनहिं पाए । निरखि नीर लोचन जल छाए । इसे न विशुद्ध अलंकार ही कह सकते हैं. न भाव ही । उपमेय और उपमान ( राम के शरीर, यमुना के जल ) के सादृश्य की ओर ध्यान देते हैं तो स्मरण अलंकार ठहरता है; और जब अश्रु सात्त्विक की ओर देखते हैं तो स्मरण संचारी भाव निश्चित होता सच पूछिए तो इसमें दोनों हैं। पर इसमें संदेह नहीं कि भाव का उद्रेक अत्यंत स्वाभाविक है और यहाँ वही प्रधान है, जैसा कि "लोचन जल छाए” से प्रकट होता है। विशुद्ध अलंकार तो वहीं कहा जा सकता है जहाँ सदृश वस्तु लाने में कवि का उद्देश्य केवल रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष दिखाना रहता है। अलंकार का स्मरण प्राय: वास्तविक नहीं होता; रूप-गुण आदि के उत्कर्ष- प्रदर्शन का एक कौशल मात्र होता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि स्मरण भाव केवल सदृश वस्तु से ही नहीं होता, संबंधी वस्तु से भी होता है। शुद्ध 'स्मरण' भाव का यह उदाहरण बहुत ही अच्छा है- जननी निरखति बान धनुहियाँ । बार बार उर नयननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियां ।। अब भ्रम का एक ऐसा ही उदाहरण लीजिए। सीताजी अपने जलने के लिये अशोक से अंगार माँग रही थीं। इतने में हनुमान ने पेड़ के ऊपर से राम की 'मनोहर मुद्रिका' गिराई और- "जानि असोक-श्रृंगार मीय हरषि उठि कर गयो"।