अलंकार-विधान १७५ " श्राश्रम - सागर - सांतरस पूरन पावन पाथ । सेन मनहुँ करुना-सरित लिए जाहिं रघुनाथ ।। बोरति ग्यान-बिराग-करारे । बचन सलोक मिलत नद-नारे ।। सोच उसास समीर तरंगा । धीज तट तरुवर कर भंगा। विषम बिषाद तुरावति धारा । भय भ्रम भवर अवर्त्त अपारा ।। केवट बुध, विद्या बड़ि नावा । सकहिं न खेइ एक नहिं भावा ।। प्रास्रम-उदधि मिली जब जाई । मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई । (४) गुण का अनुभव तोत्र करने में सहायक अलंकार देखिए, इस 'व्यतिरेक' की सहायता से संतों का स्वभाव किस सफाई के साथ औरों से अलग करके दिखाया गया है- संत-हृदय नवनीत-समाना । कहा कबिन पै कहइ न जाना ॥ निज परिताप वै नवनीता । पर दुख व सुसंत पुनीता ॥ संत और असंतों के बीच कं भेद को थोड़ा कहते कहते व्याघात' द्वारा कितना बड़ा कह डाला है, जरा यह भी देखिए- बंदों संत असज्जन चरना । दुःख-प्रद उभय, बीच कछु बरना ।। मिलत एक दारुन दुख देहीं । बिछुरत एक प्रान हरि बेहीं ।। इस इतने बड़े भेद को थोड़ा कहनेवाले का हृदय कितना बड़ा होगा! कवि लोग अपनी चतुराई दिखाने के लिये श्लेष, कूट, प्रहेलिका आदि लाया करते हैं, पर परम भावुक गोस्वामीजी ने ऐसा कहीं नहीं किया। एक स्थान पर ऐसी युक्ति-पटुता है, पर वह आख्यान- गत पात्र का चातुर्य दिखाने के लिये ही है। लक्ष्मण से शूर्पणखा के नाक-कान काटने के लिये राम इस तरह इशारा करते हैं- बेद नाम कहि, अँगुरिन खंडि अकास । पठयो सूपनखाहि लषन के पास ॥
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