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गोस्वामी तुलसीदास


मिलै जो सरल हि सरल है,कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु, ज्यों बक्रगति ब्याल न बिलै समाई॥

जिसे हम पचासों बार दुष्टता करते देख चुके हैं, वह यदि कभी बहुत सीधा बनकर आवे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह अपना कोई मतलब निकालने के लिये तैयार हुआ है। मतलब निकालने के लिये तैयार दुष्ट संसार में कितनी भयंकर वस्तु है!

क्रोध से भरी कैकयी राम को वन भेजने पर उद्यत होकर खड़ी होती है। उस समय उसके कर्म और संकल्प की सारी भीषणता गोचर नहीं हो रही है। देश और काल का व्यवधान पड़ता इससे गोस्वामीजी रूपक द्वारा उसे प्रत्यक्ष कर रहे हैं——

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष-तरंगिनि बाढ़ी।
पाप-पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध-जल जाइ न जोई॥
दोउ बर कूल, कठिन हठ धारा। भंवर बरी-बचन प्रचारा॥
ढाहत भूप-रूप तरु-मूला। चली बिपति-बारिधि अनुकूला॥

'पाप' और 'पहाड़' तथा 'क्रोध' और 'जल' में यहाँ अनुगामी धर्म है, शेष में वस्तु-प्रतिवस्तु ! जैसे नदी के दो कूल होते हैं, वैसे ही उसके क्रोध के दो पक्ष दोनों वर हैं; जैसे धारा में वेग होता है, वैसे ही हठ में है; जैसे भँवर मनुष्य का निकलना कठिन कर देता है, वैसे ही कूबरी के वचन परिस्थिति को और कठिन कर रहे हैं। यह सांग रूपक कैकेयी के कर्म की भीषणता को खूब आँख के सामने ला रहा है भाव या क्रिया की गहनता द्योतित करने के लिये गोस्वामीजी ने प्राय: नदी और समुद्र के रूपक का आश्रय लिया है चित्रकूट में अपने भाइयों के सहित रामचंद्र जनक से मिलकर उन्हें अपने आश्रम पर जा रहे हैं। वह समाज ऐसे शोक से भरा हुआ था जिसका प्रत्यक्षीकरण इस 'रूपक' के ही द्वारा अच्छी तरह हो सकता था——