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अलंकार-विधान


उसके अग-प्रत्यंग का साक्षात्कार जिसका विशाल अंत:करण कर सकता है, वही प्रकृत कवि है। जी न चाहने पर भी विवश होकर यह कहना पड़ता है कि गोस्वामीजी को छोड़ हिंदी के और किसी कवि में वह प्रबंध-पटुता नहीं जो महाकाव्य की रचना के लिये आवश्यक है। प्रकरण-प्राप्त विषयों को अलंकार-सामग्री बनाते हुए किस प्रकार वे स्थान स्थान पर प्रबंध-प्रवाह के भीतर ही अलंकारों का विधान भी करते चलते हैं, यह हम दिखाते आ रहे हैं। एक और उदाहरण लीजिए जिसमें 'सहोक्ति द्वारा एक ही क्रिया (धनुर्भग) का कैसा विशद संग्राहक रूप दिखाया गया है——

गहि करतल, मुनि पुलक सहित, कौतुकहि उठाइ लियो।
नृपगन मुखनि समेत नमित करि सज सुख सहि दिव॥
अाकरख्यो सिय-मन समेत हरि, हरप्यो जनक-हियो।
भंज्यो भृगुपति-गर्ब सहित, तिहुँ लोक बिमोह किये॥

परिणाम का स्वरूप आगे रखकर कर्म की भयंकरता अनुभव कराने का कैसा प्रकृत प्रयत्न इस 'अप्रस्तुत प्रशंसा' में दिखाई पड़ता है——

मातु-पिनहि जनि सोच-वस करति महीप-किसोर।

इसी प्रकार कर्म के स्वरूप को एकबारगी नजर के सामने लाने के लिये 'ललित' अलंकार द्वारा उसका यह गोचर स्वरूप सामने रखा गया है——

यहि पापिनिहि सूमि का परेऊ? छाए भवन पर पावक धरेऊ।

क्रूर और नीच मनुष्य यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इसे बहुत डर की बात समझना चाहिए। नीचों की नम्रता की यह भयंकरता गोस्वामीजी ने बड़े ही अच्छे ढंग से गोचर की है——

नवनि नीच के अति दुखदाई। जिमि अंकुस, धनु, उरग, बिलाई।

यही बात दोहावली में दूसरे ढंग से कही गई है——