- एक अलंकार-विधान १७१ सीता के प्रति कहे हुए रावण के वचन को सुनकर हनुमानजी को जो क्रोध हुआ, उसके वर्णन में इस रूपक का प्रयोग भी ऐसा ही है. अकनि कटु बानी कुटिल की क्रोध-बिंध्य बढ़ोइ । सकुचि राम भयो ईस-आयसु-कलसभव जिय जोइ ॥ इनमें क्रिया या वेग को छोड़ प्रस्तुत-अप्रस्तुत मे रूप आदि का कोई साश्य नहीं है। पर गोस्वामीजी के ग्रंथों में ऐसे स्थल भी बहुत से मिलते हैं जिनमें बिब-प्रतिबिब भाव से प्रस्तुत और अप्रस्तुत की स्थिति भी है और धर्म भी वस्तु-प्रतिवस्तु है। उदाहरण लोजिए- बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौ, लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है । केधों ब्योम-बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेनु, बीर रस बीर तरवारि सी उघारी है। तुलसी सुरेस-चाप, कैध दामिनी-कलाप कंधों चली मेरु ते कृसानु-सरि भारी है । इसमें 'उत्प्रेक्षा' और 'सदेह का व्यवहार किया गया है। इधर-उधर घूमती हुई जलती पूंछ तथा काल की जीभ और तलवार में बिंब-प्रतिबिंब भाव ( रूप-सादृश्य ) भी है तथा संहार करने और दाह करने में वस्तु-प्रतिवस्तु धर्म भी है। इस दृष्टि से यह अलंकार बहुत ही अच्छा दो-एक जगह ऐसे उपमान भी मिलते हैं जिनमें कवि के अभि- प्रेत विषय में तो सादृश्य है, पर शेष विषयों में इतना अधिक असा- दृश्य है कि उपमान की हीनता खटकती है; जैसे- सेवहि लषन-सीय रघुबीरहि । जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि । पर कहीं कहीं इस हीनता को कुछ अपने ऊपर लेकर गोस्वामीजी ने उसका सारा दोष हर लिया है- . .
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