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तुलसीदास की भक्ति- पद्धति


बन मधुर रूप ही शेष रह गया। वल्लभाचार्यजी ने स्पष्ट शब्दो में उनका लोकसंग्रही रूप हटाया। उन्होंने लोक और वेद दोनों की मर्यादा का अतिक्रमण अपने संप्रदाय में आवश्यक ठहराया : लोक को परे फेंकने से कृष्णभक्ति व्यक्तिगत एकांत प्रेम-साधना के रूप में ही रह गई । इतना होने पर भी सूरदास, नंददास आदि महा- कवियों ने कृष्ण को इसी जगत् के बीच-वृंदावन में रखकर देखा। उन्होंने रहस्यवाद का रंग अपनी कविता पर नहीं चढ़ाया।

मुसलमानी अमलदारी में सूफी पीरों और फकीरों का पूरा दौर- दौरा रहा। लोक-संग्रह का भाव लिए रहने के कारण रामभक्ति- शाखा पर तो उनका असर न पड़ा। पर, जैसा कि कह आए हैं, कृष्णभक्ति-शाखा लोक को परे फेंककर व्यक्तिगत एकांत साधना का रंग पकड़ चुकी थी । इससे उसके कई प्रसिद्ध भक्तों पर सूफियों का पूरा प्रभाव पड़ा। चैतन्य महाप्रभु में सूफियों की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट लक्षित होती हैं । जैसे सूफी कव्वाल गाते गाते ‘हाल' की दशा में हो जाते हैं वैसे ही महाप्रभुजी की मंडली भी नाचते नाचते मूर्च्छित हो जाती थी । यह मूर्छा रहस्य-संक्रमण का एक लक्षण है। इसी प्रकार मीराबाई भी 'लोकलाज खाकर' अपने प्रियतम कृष्ण के प्रेम में मतवाली और विरह में व्याकुल रहा करती थीं। नागरी- दासजी भी इश्क का प्याला पीकर इसी प्रकार झूमा करते थे। यहीं तक नहीं, माधुर्यभाव की उपासना लेकर कई प्रकार के सखी- संप्रदाय भी चले जिनमें समय समय पर प्रियतम के साथ संयोग हुआ करता है। एक कृष्णोपासक संप्रदाय स्वामी प्राणनाथजी ने चलाया जो न तो द्वारका, वृदावन आदि तीर्थों को कोई महत्त्व देता है और न मंदिरों में श्रीकृष्ण की मूर्तियों का दर्शन करने जाता है। वह इस वृंदावन और इसमें विहार करनेवाले कृष्ण को गोलोक की नित्य-लीला की एक छाया मात्र मानता है।