जब अलंकार-विधान कवि लोग कभी कभी दूर की उड़ान भी मारा करते हैं । गोस्वामीजी ने भी कहीं कहीं ऐसा किया है। सीता के रूप-वर्णन में यह "अतिशयोक्ति" देखिए- जो छबि-सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ।। सेभा रजु मंदर सुगारू । मथै पानि पंकज विज मारू ।। यहि बिधेि उपजै लच्छि सुदरता-सुख-मूल। तदपि सोच समेत कबि कहहिं सीय-मम तूल ।। चंद्रमा के काले दाग पर यह अप्रस्तुत प्रशंसा देखिए- काउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा । सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ।। छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं । तेहि सम देखिय नभ परछाहीं । रूप-संबंधी कुछ और उक्तियाँ देखिए- (क) सम सुबरन सुषमा कर सुखद न थोर । सीय अंग, सखि, कोमल, कनक कठोर ॥ सियमुख सरद-कमल जिमि किमि कहि जाइ? निसि मलीन वह, निसि दिन यह बिगलाइ ।। (व्यतिरेक) (ख) सिय नुव अंग-रंग मिलि अधिक उदोत । वेलि पहिरावै पक होत ।। (मीलित) (ग) चंपक-हरवा अँग मिलि अधिक सुनाइ । जानि परै सिय-हियरे जब कुम्हि लाइ । (उन्मीलित) (घ) केस मुकुत, सखि, मरकत मनिमय होत । हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोत ।। (अतद्गुण) (च) मुख-अनुहरिया केवल चंद-समान । (प्रतीप) (छ) द्वैभुज कर हरि रघुवर सुदर बेघ । एक जीभ कर ल मन दूसर शेष ॥ (हीन अभेद रूपक) जहाँ वस्तु या व्यापार अगोचर होता है, वहाँ अलंकार उसके अनुभव में सहायता गोचर रूप प्रदान करके करता है; अर्थात् वह ,
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