देखहि भूप गोस्वामी तुलसीदास रथि निज उदय-ब्याज रघुराया । प्रभु-प्रताप सब नृपन दिखाया। भिन्न भिन्न गुणों के आश्रयत्व से एक ही राम को गोस्वामीजी ने इतने विभिन्न ( कहीं कहीं तो बिल्कुल विरुद्ध ) रूपों में 'उल्लेख' के सहारं दिखाया है कि जो बेचारे अलंकार-सलंकार नहीं जानते, वे इसे राम की दिव्य विभूति समझकर ही प्रसन्न हो जाते हैं। देखिए- जिनकै रही भावना जैसी । हरि-मूरति देखी तिन्ह तैसी ॥ महा रनधीरा । मनहुँ बीररस धरे सरीरा ।। डरे कुटिल नृर प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी॥ पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नर-भूषन लोचन-सुख-दाई ॥ रहे असुर छल-छोनिप-बेषा । तिन प्रभु प्रगट काल-सम देखा ।। अलंकार के निर्वाह का वे पूरा ध्यान रखते थे। हिरन के पीछे दौड़ते हुए राम को पंचशर कामदेव बनाना है, इसके लिये देखिए इस भ्रमालंकार मे वे शरों की गिनती किस प्रकार पूरी करते हैं- सर चारिक चारु बनाइ कसे कटि, पानि सरासन-सायक लै। बन खेलत राम फिरें मृगया, तुलसी चिसो बरनै किमि के ? अवलोकि अलौकिक रूप मृगी मृग चैकि चकै चित चित है। न डौँ, न भनें जिय जानि मिलीनुख पंच धरे रतिनायक है। प्रकरण-प्राप्त वस्तुओं के भीतर से ही वे प्रायः अलंकार की सामग्री चुनते हैं। इस 'निदर्शना' में उसका एक और सुंदर उदाहरण लीजिए। विश्वामित्र के साथ जाते हुए बालक राम-लक्ष्मण उनकी नजर बचाकर कहीं धूल-कीचड़ में खेल भी लेते हैं जिसके दाग कहीं कहीं बदन पर दिखाई पड़ते हैं- सिरनि सिखंड सुमन-दल मंडन बाल सुभाय बनाए । केलि-अंक तनु रेनु पंक जनु प्रगटत चरित चुराए ।
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