पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१६१

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अलंकार-विधान भावों का जो स्वाभाविक उद्रेक और विभावों का जो स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण गोस्वामीजी में पाया जाता है, उसका दिग्दर्शन तो हो चुका । अब जरा उनके अलंकारों की बानगी भी देख लेनी चाहिए। भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी कभी सहायक होनेवाली युक्ति हो अलंकार है। अत: अलंकारों की परीक्षा हम इसी दृष्टि से करेंगे कि वे कहाँ तक उक्त प्रकार से सहायक हैं। यदि किसी वर्णन में उनसे इस प्रकार की कोई सहायता नहीं पहुँचती है, तो वे काव्या- लंकार नहीं, भार मात्र हैं। यह ठीक है कि वाक्य की कुछ विलक्ष- णता-जैसे श्लेष और यमक-द्वारा श्रोता या पाठक का ध्यान आकर्षित करने के लिये भी अलंकार की थोड़ी बहुत योजना होती है, पर उसे बहुत ही गौण समझना चाहिए । काव्य की प्रक्रिया के भीतर ऊपर कही बातों में से किसी एक में भी जिस अलंकार से सहायता पहुँचती है, उसे हम अच्छा कहेंगे और जिससे कई एक मे एक साथ सहायता पहुँचती है, उसे बहुत उत्तम कहेंगे। अलंकार के स्वरूप की ओर ध्यान देते ही इस बात का पता चल जाता है कि वह कथन की एक युक्ति या वर्णनशैली मात्र है। यह शैली सर्वत्र काव्यालंकार नहीं कहला सकती। उपमा को ही लीजिए जिसका आधार होता है सादृश्य । यदि कहीं सादृश्य- योजना का उद्देश बोध कराना मात्र है तो वह काव्यालंकार नहीं। "नीलगाय गाय के सदृश होती है" इसे कोई अलंकार नहीं कहेगा। इसी प्रकार "एकरूप तुम भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारे सोऊ ॥" में भ्रम अलंकार नहीं है। केवल "वस्तुत्व" या "प्रमेयत्व"