बाह्य-दृश्य-चित्रण अब सूर और जायसी को देखिए । वे लड्डू, पेड़ा, जलेबी, पूरी, कचौरी, बड़ा, पकौड़ी, मिठाइयों और पकवानों के जितने नाम याद आए हैं-या लोगों ने बताए हैं-सब रखते चले गए हैं। जायसी तो कई पृष्ठों तक इसी तरह गिनाते गए हैं- लुचुई पूरि सोहारी पूरी । इक तो ताती श्री सुठि कोवरी ॥ भू जि समोसा घी मह काढ़े। लॉग मिरिच तेहि भीतर ठाढ़े ॥ इसी प्रकार चावलों और तरकारियों के पचीसो नाम देख लीजिए। सूरदासजी ने भी यही किया है। 'नंद बबा' कृष्ण को लेकर खाने बैठे हैं। उनके सामने क्या क्या रखा है, देखिए- लुचुई, लपसी, सद्य जलेबी सोइ जेवहु जो लगै पियारी । घेवर, मालपुवा, मोतिलाडू सुघर सजूरी सरस संवारी ।। दूध-बरा, उत्तम दधि. बाटी, दाल मसूरी की रुचि न्यारी । श्राछ। दृद्ध प्राटि धारी को मैं ल्याई रोहिणि महतारी ।। इन नामो को सुनकर अधिक से अधिक यही हो सकता है कि श्रीताओ के मुंह में पानी आ जाय ! साजन का ऐसा दृश्य सामने रखना साहित्य के मर्मज्ञ आचाटयों ने भी काव्य-शिष्टता के विरुद्ध समझा था; इसी से उन्होंने नाटक में इसका निषेध किया था- दूराह्वानं, वो, युद्धं, राज्यदशादिविप्लवः । विवाहो भोजनं शापोरस! मृत्यू रतं तथा ।। कुछ हिंदी कवियों ने बहुत सी वस्तुओं की लंबी सूची देने को ही वर्णन-पटुता समझ लिया था। इसके द्वारा मनुष्य के भिन्न भिन्न व्यवसाय-क्षेत्रों की अपनी जानकारी भी वे प्रकट करना चाहते थे। घोड़ों का प्रसंग आया तो बस 'ताजी, अरबी, अबलक, मुश्की" गिना चले। हथियारों का प्रसंग आया तो सैकड़ों की फिहरिस्त मौजूद है। महाराज रघुराजसिंह ने तो यह समझिए कि अपने समय के राजसी ठाठ और जलूस के सामान गिनाने के लिये ही -
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