१४८ गोस्वामी तुलसीदास की रुचि भिन्न भिन्न मनोविकारों के उद्दीपन द्वारा कैकेयी में उत्पन्न की 'जब यह रुचि उत्पन्न हो गई, तब स्वभावत: कैकेयी का अंत:- करण भी उसके समर्थन में तत्पर हुमा- सुनु मंथरा बात फुर तोरी । दहिनि प्रांख नित फरकइ मोरी ॥ दिन प्रति देखेउँ राति कुसपने । कहैं। न ताहि मोह-बस अपने ॥ काह करौं सखि ? सूध सुभाऊ । दाहिन - बाम २ जानों काऊ ॥ इस प्रकार जो भावी दृश्य मन में जम जाता है, उससे कैकेयी के हृदय में घोर नैराश्य उत्पन्न होता है। वह कहती है- नैहर जनमु भरब बरु जाई । जियत न करब सवति-सेवकाई ॥ अरि-बम दैव जिावत जाही। मरनु नीक तेहि जीव न चाही ।। इस दशा में मंथरा उसे सँभालती है और कार्य में तत्पर करने के लिये आशा बँधाती हुई उत्साह उत्पन्न करती है- जेइ राउर अति अनभल ताका । सोइ पाइहि यह फलु परिपाका ।। पूछेउँ गुनिन्ह, रेख तिन्ह खांची। भरत भुपाल हाहिं यह आँची ।। इस प्रसंग के चित्रण को देख यह समझा जा सकता है कि गोस्वामीजी ने मानव-अंत:करण के कैसे कैसे रहस्यों का उद्घाटन किया है। ऐसी गूढ उद्भावना बिना सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के नहीं हो सकती। बालकों की प्रवृत्ति का चित्रण हम परशुराम और लक्ष्मण के संवाद में पाते हैं। अकारण चिढ़नेवालों को चिढ़ाना बालकों के स्वभाव के अंतर्गत होता है। चिड़चिड़े लोगों की दवा करने का भार मानों समाज ने बालकों ही को दे रखा है। राम के विनय करने पर भी परशुराम को ज्यों ही लक्ष्मण चिढ़ते देखते हैं, त्यों ही उनकी बाल-प्रवृत्ति जाग्रत हो जाती है। लक्ष्मण का स्वभाव उग्र था, इससे इस कौतुक के बीच बीच में क्रोध का भी आभास हमें मिलता है। परशुराम की आकृति जब अत्यंत भीषण और वचन ,
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