पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१४७

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शोल निरूपण और चरित्र-चित्रण १४७ लोगों को बुरा लगता है। विश्वास न करनेवाले के सामने कुछ तटस्थ होकर अपने भाग्य को दोष देने लगना विश्वास उत्पन्न कराने का एक ऐसा ढंग है जिसे कुछ लोग, विशेषत: स्त्रियाँ, स्वभावत: काम में लाती हैं। इससे श्रोता का ध्यान उसके खेद की सचाई पर चला जाता है और फिर क्रमश: उसकी बातों की ओर आकर्षित होने लगता है। इस खेद की व्यंजना प्राय: 'उदासीनता' के द्वारा की जाती है; जैसे "हमें क्या करना है ? हमने आपके भले के लिये कहा था। कुछ स्वभाव ही एसा पड़ गया है कि किसी का अहित देखा नहीं जाता।" मंथरा के कहे हुए खेद-व्यंजक उदासीनता के ये शब्द सुनते ही झगड़ा लगानेवाली स्त्री का रूप सामने खड़ा हो जाता है- कोउ नृप होइ हमहि का हानी : जेरि छाडि अब होब कि रानी ? जोग सुभाउ हमारा । अनभन देखि न जाइ तुम्हारा ॥ अब तो कैलंयी को विश्वास हो रहा है. यह देखते ही वह राम के अभिषेक से होनेवाली कैकयी की दुर्दशा का चित्र खींचती है और यह भी कहती जाती है कि राम का तिलक होना मुझे अच्छा लगता है, राम से मुझे कोई द्वेष नहीं है, पर आगे तुम्हारी क्या दशा होगी, यही सोचकर मुझे व्याकुलता होती है- • रामहि तिलक कालि जो भयऊ । तुम कहँ बिपति-बीज विधि बयऊ ।। रेख खेंचाइ कहहुँ बल भाखी । भामिनि भइहु दूध के माखी ॥ जो सुत सहित करहु सेवकाई । तो वर रहहु, न पान उपाई ॥ 'इस भावी दृश्य की कल्पना से भला कौन स्त्री क्षुब्ध न होगी ? किसी बात पर विश्वास करने या न करने की भी मनुष्य की रुचि नहीं होती है। जिस बात पर विश्वास करने की मनुष्य को रुचि नहीं होती, उसके प्रमाण आदि वह सुनता ही नहीं; सुनता भी है तो ग्रहण नहीं करता। मंथरा ने पहले अपनी बात पर विश्वास करने जारह