होता हुआ स्वरूप ही प्रेम या भक्ति का आलंबन हो सकता
है। इस जगत् से सर्वथा असंबद्ध किसी अव्यक्त सत्ता से प्रेम
करना मनोविज्ञान के अनुसार सर्वथा असंभव है। भक्ति केवल
ज्ञाता या द्रष्टा के रूप में ही ईश्वर की भावना लेकर संतुष्ट नहीं हो सकती।
वह ज्ञातृपक्ष और ज्ञेयपक्ष दोनों को लेकर चलती है
बौद्धों की महायान शाखा का एक और अवशिष्ट "अलखिया संप्रदाय" के नाम से उड़ीसा तथा उत्तरीयभारत के अनेक भागों में घूमता दिखाई पड़ता था।★ यह भी महायान शाखा के बौद्धों के समान अंत:करण के मन, बुद्धि, विवेक, हेतु और चैतन्य ये पाँच भेद बतलाता था और शून्य का ध्यान करने को कहता था। इस संप्रदाय का "विष्णुगर्भपुराण” नामक एक ग्रंथ उड़िया भाषा में जिसका संपादन प्रो. आर्त्तवल्लभ महंती ने किया है। उन्होंने इसका रचना- काल सन् १५५० ई० के पहले स्थिर किया है। इस पुस्तक के अनुसार विश्व में चारों ओर 'अलख' ही का प्रकाश हो रहा है। अलख ही विष्णु है जिससे निराकार की उत्पत्ति हुई। सारी सृष्टि अलख के गर्भ में रहती है। अलख अज्ञेय है। चारों वेद उसके संबंध में कुछ भी नहीं जानते । अलख से प्रादुर्भूत निराकार तुरीया- वस्था में रहता है और उसी दशा में उससे ज्योति की उत्पत्ति होती यह सृष्टि तत्त्व बौद्धों की महायान शाखा का है 'अलख' संप्रदाय के साधु अपने को बड़े भारी रहस्यदर्शी योगी और 'अलख' को लखनेवाले प्रकट किया करते थे। ऐसा ही एक साधु गोस्वामीजी के सामने आकर 'अलख', 'अलख' करने लगा। इस पर उन्होंने उसे इस प्रकार फटकारा-
हम लखि, लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच ।
तुलसी अलखहि का लखै रामनाम जपु नीच ॥
★अब भी इस संप्रदाय साधु दिखाई पड़ते हैं