उसके सुख-संतोष की वहीं तक परवा रखता है जहाँ तक उससे स्वार्थ-साधन होता है। राम ने 'एक भार्या' की मर्यादा द्वारा जिस प्रकार प्रेम के अपूर्व माधुर्य और सौंदर्य का विकास दिखाया, उसी प्रकार अपने पिता की परिस्थिति से भिन्न अपनी परिस्थिति भी लोक को दिखाई। कैकेयी ने एक बार दशरथ के साथ युद्ध-स्थल में जाकर पहिए में उँगली लगाई थी और उसके बदले में दो वरदान लिए थे, तो सीता चौदह वर्ष राम के सीथ जंगलों-पहाड़ों में मारी मारी फिरी, और उस मारे मारे फिरने को ही उन्होंने अपने लिये बड़ा भारी वरदान समझा । अंत में जब राजधर्म की विकट समस्या सामने आती है, तब हम राम को ठीक उसका उलटा करने में समर्थ पाते हैं जो दशरथ ने कैकेयी को प्रसन्न करने के लिये कहा था। दशरथ एकमात्र कैकेयी को प्रसन्न करने के लिये किसी राजा को बिना अपराध देश से निकालने के लिये तैयार हुए थे। पर राम प्रजा को प्रसन्न करने के लिये बिना किसी अपराध के प्राणों से भी प्रिय सीता को निकालने को तैयार हुए। दशरथ अपनी स्त्री के कहने से किसी राजा तक को देश से निकालते, पर राम ने एक धोबी तक के कहने से अपनी स्त्री को निकाल दिया। इतने पर भी सीता और राम में जो परस्पर गूढ़ प्रेम था. उसमें कुछ भी अंतर न पड़ा। सीता ने स्वामी के इस व्यवहार का कारण राजधर्म की कठोरता, ही समझा । यह नहीं समझा कि राम का प्रेम मेरे ऊपर कम हो गया। सात्त्विक, राजस और तामस इन तीन प्रकृतियों के अनुसार चरित्र-विभाग करने से दो प्रकार के चित्रण हम गोस्वामीजी में पाते हैं-आदर्श और सामान्य। आदर्श चित्रण के भीतर सात्त्विक और तामस दोनों आते हैं। राजस को हम सामान्य चित्रण के भीतर ले सकते हैं। इस दृष्टि से सीता, राम, भरत, हनुमान और
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गोस्वामी तुलसीदास