पड़ा जिसमें गोस्वामी तुलसीदास स्नेह की भी रक्षा की। इस प्रकार सत्य और स्नेह, नियम और शील दोनों की रक्षा हो गई। रामचंद्रजी भरत को समझाते इस विषय को स्पष्ट करके कहते हैं- राखेउ राउ सत्य मोहि त्यागी । तनु परिहरेउ प्रेम-पनु लागा ।। शील और नियम, आत्मपक्ष और लोक-पक्ष के समन्वय द्वारा धर्म की यही सर्वतोमुख रक्षा रामायण का गूढ़ रहस्य है। वह धर्म के किसी अंग को नोचकर दिखानेवाला ग्रंथ नहीं है। यह देखकर बार बार प्रसन्नता होती है कि आर्य-धर्म का यह सार- संपुट हिंदी कवियों में से एक ऐसे महात्मा के हाथ में उसके उद्घाटन की सामर्थ्य थी। देखिए, किस प्रकार उन्होंने राम के मुख से उपर्युक्त विवेचन का सार चौपाई के दो चरणों में ही कहला दिया। रामायण की घटना के भीतर तो दशरथ का यह महत्त्व ही सामने आता है। पर कथोपकथन रूप में जो कवि-कल्पित चित्रण है, उसमें वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने दशरथ की अंतर्वृत्ति का कुछ और भी आभास दिया है। विश्वामित्र जब बालक राम- लक्ष्मण को माँगनं लगे, तब दशरथ ने देने में बहुत आगा-पीछा किया। वे सब कुछ देने को तैयार थे, पर पुत्रों को देना नहीं चाहते थे । वृद्धावस्था में पाए हुए पुत्रों पर इतना स्नेह स्वाभाविक ही था। वे मुनि से कहते हैं- चौथे पन पाए सुन चारा । बिन बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥ मागहु भूमि धेनु धन कोसा । सरबस दे श्राजु सह रोसा ।। देह प्रान ते प्रिय कछु नाहीं । सेोउ मुनि ! देउँ निमिघ एक माहीं । पब सुत प्रीय गान की नाई। राम देत नहि बना गोसाई॥ इससे प्रकट होता है कि उनका वात्सल्य-स्नेह ऐसा न था कि वे साधारण कारण-वश उसकी प्रेरणा के विरुद्ध कुछ करने जाते ।
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गोस्वामी तुलसीदास