पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१३५

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गोस्वामी तुलसीदास

मेगा। परिनामू ।। "अपनी समुझि साधु१३४| १३४ गोस्वामी तुलसीदास महूँ सनेह-सकोच-बस सनमुख कहेउ न बैन । दरसल-तृपित न अाजु लगि पेम-पियास नैन । बिधि न सकेहु सहि मार दुलारा । नीव बीच जननी मिल पारा ॥ यह कहत मोहि आजु न सेभा । अपनी समुझि साधु सुचि को भा ? मातु मंद, मैं साधु सुचाती। उर अल आनन कोटि कुवाली ॥ फरइ कि कोदव बालि सुसाली । मुकुना प्रसव कि संबुक ताली । बिनु समुझे विज - अघ - परिपाकू । जारेउँ जाय जननि कहि काकू ? हृदय हेरि हारे सब पीरा । एकहि भांति भलेहि भल गुरु गोसाइँ, साहिब सिय-रामू । लागत माहि' नीक ...भरत को इस बात पर ग्लानि होती है कि मैं आप अच्छा बनकर माता को भला-बुरा कहने गया । सुचि को भा ?" जिसे दस भले आदमी-पवित्र और सज्जन लोग, जड़ और नीच नहीं-साधु और शुचि मानें, उसी की साधुता और शुचिता किसी काम की है। इस ग्लानि के दुःख पाने की आशा एक इसी बात से होती है कि गुरु और स्वामी वशिष्ठ तथा राम ऐसे ज्ञानी और सुशील हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह आशा ऐसे दृढ़ आधार पर थी कि पूर्ण रूप से फलवती भरत केवल लोक की दृष्टि में पवित्र ही न हुए, लोक को पवित्र करनेवाले भी हुए। राम ने उन्हें धर्म का साक्षात् स्वरूप स्थिर किया और स्पष्ट कह दिया कि- भरत ! भूमि रह राउरि राखी । अब सत्य और प्रेम के विरोध में दोनों की एक साथ रक्षा करने- वाले परम यशस्वी महाराज दशरथ को लीजिए। वे राम को वन- वास देने में सत्य की रक्षा और प्रतिज्ञा का पालन हृदय पर पत्थर रखकर -उमड़ते हुए स्नेह और वात्सल्य-भाव को दबाकर-करते हुए पाए जाते हैं। इसके उपरांत हम उन्हें स्नेह के निर्वाह में तत्पर से उद्धार