किया है। पर हमारे देखने में तो यह धब्बा ही संपूर्ण रामचरित को उच्च आदर्श के अनुरूप एक कल्पना मात्र समझे जाने से बचाता है। यदि एक यह धब्बा न होता तो राम की कोई बात मनुष्य की सी न लगती और वे मनुष्यों के बीच अवतार लेकर भी मनुष्यों कं काम के न होते । उनका चरित भी उपदेशक महात्माओं की केवल महत्त्वसूचक फुटकर बातों का संग्रह होता, मानव-जीवन की विशद अभिव्यक्ति सूचित करनेवाले संबद्ध काव्य का विषय न होता । यह धब्बा ही सूचित करता है कि ईश्वरावतार राम हमारे बीच हमारे भाई-बंधु बनकर आए थे और हमारे ही समान सुख-दुःख भोग- कर चले गए। वे ईश्वरता दिखाने नहीं आए थे. मनुष्यता दिखाने आए थे। भूल-चूक या त्रुटि से सर्वथा रहित मनुष्यता कहाँ होती है ? इसी एक धब्बे के कारण हम उन्हें मानव-जीवन से तटस्थ नहीं समझते-तटस्थ क्या कुछ भी हटे हुए नहीं समझते हैं अब थोड़ा भरत के लोक-पावन निर्मल चरित्र की ओर ध्यान दीजिए। राम की वन-यात्रा के पहले भरत के चरित्र की श्रृंखला संघटित करनेवाली कोई बात हम नहीं पाते। उनकी अनुपस्थिति में ही राम के अभिषेक की तैयारी हुई. राम वन को गए । नानिहाल से लौटने पर ही उनकं शील-स्वरूप का स्फुरण प्रारंभ होता है। नानिहाल में जब दुःस्वप्न और बुरं शकुन होते हैं, तब वे माता-पिता और भाइयों का मंगल मनाते हैं कैकेयी के कुचक्र में अणु-मात्र योग के संदेह की जड़ यहीं से कट जाती है। कैकेयी के मुख से पिता के मरण का संवाद सुन वे शोक कर ही रहे हैं कि राम के वन-गमन की बात सामने आती है जिसके साथ अपना संबंध- नाम मात्र का सही-समझकर वे एकदम ठक हो जाते हैं। ऐसी बुरी बात के साथ संबंध जोड़नेवाली माता के रूप में नहीं दिखाई देती। थोड़ी देर के लिये उसकी ओर से मातृ-भाव हट सा जाता .
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शील- निरूपण और चरित - चित्रण