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तुलसी की भक्ति-पद्धति


बातों का जो प्रचार कर रहे थे उसके कारण उन्हें जनता के हृदय से भक्ति-भावना भागती दिखाई पड़ी-

गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग,
निगम नियोग ते, मो केलि ही छरो सो है।

"ईश्वर को मन के भीतर ढूँढ़ो" इस वाक्य ने भी पाषंड का बड़ा चौड़ा रास्ता खोला है। जो अपने को ज्ञानी प्रकट करना चाहते हैं वे प्राय: कहा करते हैं कि "ईश्वर को अपने भीतर देखो।" गोस्वामीजी ललकारकर कहते हैं कि भीतर ही क्यों देखें, बाहर क्यों न देखें-

अंतर्जामिहु ते बड़ बाहरजामी हैं राम जो नाम लिए तें।
पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिए तें ॥

गोस्वामीजी का पक्ष है कि यदि मनुष्य के छोटे से अंत:करण के भीतर ईश्वर दिखाई भी पड़े तो भी अखिल विश्व के बीच अपनी विभूतियों से भासित होनेवाला ईश्वर उससे कहाँ पूर्ण और कल्याण- कारी है। हमारी बद्ध और संकुचित आत्मा केवल द्रष्टा हो सकती। है, दृश्य नहीं। अत: यदि परमात्मा को, भगवान् को, देखना है तो उन्हें व्यक्त जगत् के संबंध से देखना चाहिए। इस मध्यस्थ के बिना आत्मा और परमात्मा का संबंध व्यक्त ही नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि भारतीय भक्ति-मार्ग व्यक्ति-कल्याण और लोक-कल्याण दोनों के लिये है। वह लोक या जगत् को छोड़कर नहीं चल सकता। भक्ति-मार्ग का सिद्धांत है भगवान् को बाहर जगत् में देखना । 'मन के भीतर देखना' यह योगमार्ग का सिद्धांत है, भक्ति-मार्ग का नहीं। इस बात को सदा ध्यान में रखना चाहिए।

भक्ति रागात्मिका वृत्ति है, हृदय का एक भाव है। प्रेम-भाव उसी स्वरूप और उसी गुण-समूह पर टिक सकता है जो दृश्य जगत् में हमें आकर्षित करता है। इसी जगत् के बीच भासित