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गोस्वामी तुलसीदास

और लोक-मर्यादा का भाव व्यंजित करता है। मर्यादापुरुषोत्तम का चरित्र ऐसे ही कवि के हाथ में पड़ने योग्य था। सुमंत ने अयोध्या लौटकर राजा से लक्ष्मण की कही हुई बातें तो न कहीं, पर इस घटना का उल्लेख बिना किए उससे न रहा गया । क्यों ? क्या लक्ष्मण से उससे कुछ शत्रुता थी ? नहीं । राम के शील का जो अद्भुत उत्कर्ष उसने देखा, उसे वह हृदय में न रख सका। सुशीलता कं मनोहर दृश्य का प्रभाव मानव-अंत:करण पर ऐसा ही पड़ता है। सुमंत को राम की प्रज्ञा के विरुद्ध कार्य करने का दोष अपने ऊपर लेना कबूल हुआ; पर उस शील-सौंदर्य की झलक अपने ही तक वह न रख सका, दशरथ को भी उसे उसने दिखाया। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अंतिम झलक ने राजा को और भी उस मृत्यु के पास तक पहुँचा दिया होगा जो आगे चलकर दिखाई गई है। इसे कहते हैं घटना का सक्षम क्रम- विन्यास। राम और लक्ष्मण के स्वभाव-भेद का बस एक और चित्र दिखा देना काफी होगा। समुद्र के किनारे खड़े होकर समुद्र से विनय करते करते राम को तीन दिन बीत गए । तब जाकर राम को क्रोध आया और "भय बिनु होइ न प्रीति" वाली नीति की ओर उनका ध्यान गया। वे बोले- लछिमन बान सरासन भानू । सोखउँ बारिधि बिसिख-कृसानू ॥ अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ।। जिसके बाण खींचते ही “उठी उदधि उर-अंतर ज्वाला" उसने पहले तीन दिनों तक हर एक प्रकार से विनय की। विनय की मर्यादा पूरी होते ही राम ने अपना अतुल पराक्रम प्रकट किया जिसे देख लक्ष्मण को संतोष हुआ। विनयवाली नीति उन्हें पसंद न थी। एक बार, दो बार कह देना ही वे काफी समझते थे।