शोल-निरूपण और चरित्र-चित्रा १२७ पर राम भरतहि होइ न राज-मद बिधि-हरि-हर-पद पाइ । कोजी-पीकरनि छीर-सिंधु बिनसाइ॥ सुमंत जब राम लक्ष्मण को बिदा कर अयोध्या लौटने लगते हैं, तब रामचंद्रजी अत्यंत प्रेम भरा संदेसा पिता से कहने को कहते हैं जिसमें कहीं से खिन्नता या उदासीनता का लेश नहीं है। वे सारथी को बहुत तरह से समझाकर कहते हैं- सब विधि सोइ करतब्य तुम्हारे । दुख न पाव पितु सोच हमारे ॥ यह कहना लक्ष्मण को अच्छा नहीं लगता। जिस निष्ठुर पिता ने स्त्री के कहने में आकर वनवास दिया, उसे भला सोच क्या होगा? पिता व्यवहार की कठोरता के सामने लक्ष्मण का ध्यान उनके सत्य-पालन और परवशता की ओर न गया, उनकी वृत्ति इतनी धीर और संयत न थी कि वे इतनी दूर तक सोचने जाते। पिता के प्रति कुछ कठोर वचन वे कहने लगे। ने उन्हें रोका और सारथी से बहुत विनती की कि लक्ष्मण की ये बातें पिता से न कहना। पुनि कछु लपन कही कटु बाजी ! प्रभु बरजेउ बड़ अनुचित जानी ॥ सकुचि गम निज सपथ दिवाई । लषन-सँदेसु कहिय जवि जाई ।। यह 'सकुचि' शब्द कितना भाव-गर्भित है । यह कवि की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि सूचित करता है। मनुष्य का जीवन सामाजिक है। वह समाज-बद्ध प्राणी है। उसे अपने ही आचरण पर लज्जा या संकोच नहीं होता; अपने कुटुंबी, इष्ट-मित्र या साथो के भद्दे आचरण पर भी होता है। पुत्र की करतृत सुनकर पिता का सिर नीचा होता है. भाई की करतूत सुनकर भाई का। इस बात का अनुभव तो हम बराबर कहते हैं कि हमारा साथी हमारे सामने यदि किसी से तिचीत करते समय भद्दे या अश्लील शब्दों का प्रयोग करता है, तो हमें लज्जा मालूम होती है। यह संकोच राम की सुशोलता
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शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण