शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण "रस-संचार से आगे बढ़ने पर हम काव्य की उस उच्च भूमि में पहुँचते हैं जहाँ मनोविकार अपने क्षणिक रूप में ही न दिखाई दे- कर जीवन-व्यापी रूप में दिखाई पड़ते हैं । इसी स्थायित्व की प्रतिष्ठा द्वारा शोल-निरूपण और पात्रों का चरित्र-चित्रण होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस उच्च भूमि में आने पर फुटकरिए कवि पीछे छूट जाते हैं; केवल प्रबंध-कुशल कवि ही दिखाई पड़ते हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि गोस्वामीजी को छोड़ हिंदी का और कोई पुराना कवि इस क्षेत्र में नहीं दिखाई पड़ता। चारण- काल के चंद आदि कवियों ने भी प्रबंध-रचना की है, पर उसमें चरित्र-चित्रण को वैसा म्यान नहीं दिया गया है, वीरोल्लास ही प्रधान है। जायसी आदि मुसलमान कवियों की प्रबंध-धारा केवल प्रेम-पथ का निदर्शन करती गई है। दोनों प्रकार के आख्यानों में मनोविकारों के इतने भिन्न भिन्न प्रकृतिस्थ स्वरूप नहीं दिखाई पड़ते जिन्हें हम किसी व्यक्ति या समुदाय-विशेष का लक्षण कह सके। रस-संचार मात्र के लिये किसी मनोविकार की एक अवसर पर पूर्ण व्यंजना ही काफी होती है। पर किसी पात्र में उसे शील रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये कई अवसरों पर उसकी अभिव्यक्ति दिखानी पड़ती है। रामचरितमानस के भीतर राम, भरत, लक्ष्मण, दशरथ और ये कई पात्र ऐसे हैं जिनके स्वभाव और मान- सिक प्रवृत्ति की विशेषता गोस्वामीजी ने, कई अवसरों पर प्रदर्शित भावों और आचरणों की एकरूपता दिखाकर, प्रत्यक्ष की है। पहले राम को लीजिए और इस बात का ध्यान रखिए कि प्रधान पात्र होने कारण जितनी भिन्न भिन्न परिस्थितियों में
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शील-निरुपण और चरित्र- चित्रण