१२२ कहा नायो ? कियो, कहीं न गयो, सीस काहि न हा हा करि दीनता कही, द्वार द्वार बार बार, परी न छार मुंह बायो महिना मान प्रिय प्रान ते रजि, खोलि स्खलन भाग खिनु खिनु पेट खलायो। इसका अर्थ यह नहीं है कि तुलसीदासजी सचमुच द्वार द्वार पेट खलाते और डाँट-फटकार सुनते फिरा करते थे । कहीं राजा राम के द्वार पर खड़े अपनी दीनता का चित्र आप देखते हैं- राम से बड़ा है कोन, मो सो कौन छोटा ? राम से खरो है कौन, मो से कौन खोटो सारी विनयपत्रिका का विपय यही है-राम की बड़ाई और तुलसी की छोटाई । दैन्यभाव जिस उत्कर्ष को गोस्वामीजी में पहुँचा है, उस उत्कर्ष को और किसी भक्त कवि में नहीं । इस भाव-रहस्य से अनभिज्ञ और इस उपलनण-पद्धति को न समझनेवाले ऊपर के पदों को देख यदि कहें कि तुलसीदासजी बड़े भारी मंगन थे. हटाने से जल्दी हटते नहीं थे और खुशामदी भी बड़े भारी थे, तो उनका प्रतिवाद करना समय नष्ट करना ही है। खेद इस बात पर अवश्य होता है कि स्वतंत्र अालोचना' का ऐसा स्थूल और भहा अर्थ समझनेवाले भी हमारे बीच वर्तमान हैं। एक स्थान पर गोस्वामीजी कहते हैं- खीभिवे लायक करतब कोटि कोटि कटु, रीकिबे लायक तुलसी की निलजई । इस पर यदि कोई कह दे कि तुलसीदासजी बड़े भारी बेहया थे, तो उसकी क्या दवा है ? तुलसीदासजी को जब स्वामी के प्रति अपने प्रेम की अनन्यता की इस प्रकार प्रतीति हो जाती है कि "जानत जहान मन मेरे हू गुमान बड़ो मान्या मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहैं।" तब प्रेमाधिक्य
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गोस्वामी तुलसीदास