पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१२१

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गोस्वामी तुलसीदास

र तें निकरघुवीर-बधू , धरि धीर दए मग में डग है। झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै फिरि बूमति है "चलना अब केतिक, पर्नकुटी करिहै। कित है ?" तिय की लखि पातुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल (ख) "जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिवी, पिय ! हि वरीक द्वै ठाड़े। पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पार्य पखारिहैभूभुरि डाढ़े ॥" तुलसी रघुबीर प्रिया-स्र न जानिक, बैठि बिलंब ला कंटक काढ़े । जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाड़े ॥ कुलवधू के 'श्रम' की यह व्यंजना कैसी मनोहर है ! यह 'श्रम' स्वतंत्र है, किसी और भाव का संचारी होकर नहीं आया है। गोस्वामीजी को मनुष्य की अंत:प्रकृति की जितनी परख थी उतनी हिंदी के और किसी कवि को नहीं। कैसे अवसर पर मनुष्य के हृदय में स्वभावतः कैसे भाव उठते हैं, इसकी वे बहुत सटीक कल्पना करते थे। राम के अयोध्या लौटने पर जब सुग्रीव और विभीषण ने राम और भरत का मिलना देखा तब उनके चित्त में क्या आया होगा, यह देखिए- सधन चार मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेट त्यों सुग्रीव विभीषनहि भई भरत की भेंट ॥ रास्ते भर तो वे बहुत ही प्रसन्न आए होंगे और राम के साथ रहने के कारण अपने को गौरवशाली -शायद साधु और सज्जन भी - समझते रहे होंगे। पर यह महत्व उनका निज का अर्जित नहीं था, केवल राम की कृपा से मिला हुआ था। वे जो उसे अपना अर्जित समझते आ रहे थे, यह उनका भ्रम था। उनका यह भ्रम राम और भरत का मिलना देखकर दूर हो गया। वे ग्लानि से गड़ गए। उनके मन में आया कि एक भाई भरत हैं और एक हम लोग हैं जिन्होंने अपने भाइयों के साथ ऐसा व्यवहार किया। ,