छोटे छोटे संचारी भावों की स्वतंत्र व्यंजना भी गोस्वामीजी ने जिस मार्मिकता से की है, उससे मानवी प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण प्रकट होता है। उन्होंने ऐसे ऐसे भावों का चित्रण किया है जिनकी ओर किसी कवि का ध्यान तक नहीं गया है। संचारियों के भीतर वे गिनाए तो गए नहीं हैं। फिर ध्यान जाता कैसे ? सीता के संबंध में राम लोक-ध्वनि चरों के द्वारा सुनते हैं-
चरचा चानि से चरची जानमनि रघुराइ।
दूत-मुख सुनि लोक-धुनि घर घरनि बूझी आइ।
मर्यादास्तंभ राम लोक-मत पर सीता को वन में भेज देते हैं। लक्ष्मण उन्हें वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आँखों में आँसू भरे लौट रहे हैं। उस अवसर पर-
दीनबंधु दयालु देवर देखि अति अकुलानि।
कहति बचन उदास तुलसीदास त्रिभुवन-रानि ॥
ऐसे अवसर पर सीता ऐसी गंभीर हृदया देवी का यह 'उदा- सीन भाव' प्रकट करना कितना स्वाभाविक है-
तो लौं बलि आपुही कीबी बिनय समुझि सुधारि।
जौ लौं है। सिखि लेउँ बन ऋषि-रीति बसि दिन चारि ॥
तापसी कहि कहा पठवति नृपनि को मनुहारि।
बहुरि तिहि बिधि आइ कहिहै साधु कोउ हितकारि।।
लषन लाल कृपाल ! निपटहि डारिबी न बिसारि।
पालबी सब तापसनि ज्यो राजधर्म बिचारि ॥
सुनत सीता-बचन मोचत सकल लोचन-बारि।
बालमीकि न सके तुलसी सो सनेह सँभारि।।
काव्य के भाव-विधान में जिस उदासीनता' का सन्निवेश होगा, वह खेद-व्यंजक ही होगी-यथार्थ में 'उदासीनता' न होगी। इसे विषाद, क्षोभ आदि से उत्पन्न क्षणिक मानसिक शैथिल्य सम-