पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१११

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास को मिलेगा, जो भुलाए न भूलेगा। कवितावली में लंकादहन का बड़ा ही विस्तृत और पूर्ण चित्रण है। देखिए, कैसा आवेगपूर्ण (क) "लागि, लागि प्रागि" भागि भागि चले जहां तहां, धीय को न माय, बाप पून न सँभारहीं । टे बार, बसन उघारे, धूम धुंध अंध, कहे बारे बड़े "बारि बारि" बार बारहीं। हय हिहिनात भागे जात, घहरात गज, भारी भी! ठेलि पेलि रौदि खाँदि डारहीं। नाम लै चिलात, बिललात अकुलात अति, तात, तात ! तौसियत, मांसियत झारहीं ।। (ख) लपट कराल ज्वालजाल-मालदहूँ दिसि, धून अकुलाने पहिचान कौन काहि रे । पानी को ललात, बिललात जरे गात जात, परे पाइमाल जात, भ्रात ! तू निबाह रे ॥ प्रिया ! तू पराहि, नाथ नाथ ! तू पराहि, बाप, बाप ! तू पराहि, पूत, पूत ! तू पराहि रे । तुजसी बिलोकि लेग ब्याकुल बिहाल कहैं, "लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे॥" इसी लंकादहन के भीतर यह वीभत्स कांड सामने आता है- बाट हाटक पिघलि घी सो घना, कनक-कराहीलंक तलफति ताय से। नाना पकवान जातुधान बलवान सब, पागि पागि ढेरी कीन्हीं भली भांति भाय से । पिशाचिनियों और डाकिनियों की वीभत्स कोड़ा का जो कवि- प्रथानुसार वर्णन है, वह तो है ही, जैसे- हाट