एहु होइ मोर तुलसी की भावुकता १०६ शब्द से अंत:करण की स्वच्छता झलकती है। उनकी शपथ उनकी अंतर्वेदना की व्यंजना है- जे अघ मातु, पिता, सुत मारे । गाय-गोठ महिसुर-पुर जारे ॥ जे अध तिय-बालक-बध के न्हें । मीत महीपति माहुर दीन्हें । जे पातक उपपानक अहहीं । करम-वचन-मन-भव कवि कहहीं । ते पातक मे।हि होह बिधाता। मत, माता! सफाई के सामने हजारों वर्क लों की सफाई कुछ नहीं है, इस कसमों के सामने लाखों कसमे कुछ नहीं हैं। यहाँ वह हृदय खोलकर रख दिया गया है जिसकी पवित्रता को देख जो चाहे अपना हृदय निर्मल कर ले। हास्यरस का एक अच्छा छींटा नारद-मोह के प्रसंग में मिलता है। नारदजी बंदर का मुंह लंकर स्वयंवर की सभा में एक राज- कन्या को मोहित करने बैठे हैं- काहु न लखा सेो चरित बिसेखा । सो सरूप नृप-कन्या देखा ।। भयंकर देही । देवत हृदय क्रोध भा तेही । जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि तहि न बिलोकी भूली । पुनि पुनि मुनि उकम्महि अकुलाहों । देखि दमा हरगन मुसुकाहीं॥ गोस्वामीजी का यह हास भी मर्यादा के साथ है, 'स्मित' हास है, बड़े लोगों का हास है उस पर भी उद्देश्य-गर्भित है, निरा हास ही हास नहीं है। यह मोह और अहंकार छुड़ाने का एक साधन है। इसके बालंबन का स्वरूप भी विदूषको का सा कृत्रिम नहीं है। हास के अतिरिक्त बालविनोद की सामग्री देखनी हो, तो सुंदर कांड में एक लंबी पूँछ के बंदर को पूंछ में लुक बांधकर नाचते हुए और राक्षसों के लड़कों को ताली बजा बजाकर कूदते हुए देखिए। घोड़ी देर वहीं ठहरने पर ऐसा भयानक और वीभत्स कांड देखने मर्कट बदन
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