पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१०९

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से भाई। जननी ! तव ? हरिहैं ? गोस्वामी तुलसीदास पेड़ काटि ते पालउ सींगा । मीन जियन-हित बारि उलीचा ॥ जब तँ कुनति ! कुमत जिय ठपऊ । खंड खंड होइ हृदय न गयऊ । बर मांगत मन भई न पीरा । गरि न जीह, मुँह परेउ न कीरा ॥ अस को जीव-जंतु जग माहों । जेहि रघुनाथ प्रान-प्रिय नाही ? भे अति अहित राम तेउ तोहां । को तू अहसि ? सत्य कहु मोहीं ॥ (ख) ऐसे तैं क्यों कटु बचन कह्यो, री ? "राम जाहु कानन" कठोर तेरे कैसे धौ हृदय रह्यो री ? दिनकर बम, पिता दसरथ से राम-लपन तू जननी तो कहा कहै ? बिधि केहि खोरि न लाई । "ही लहि है। सुख राजमातु है, सुत सिर छत्र धरैगो ।" कुल-कलंक-मल मूल मनोरथ बिनु कौन करेगो ऐहैं राम सुखी सब ह्र हैं, ईम अजस मेरो तुलसिदास मोको बड़ो सोच, तू जनम कौन विधि भरिहै ? एक बार तो संसार की ओर देखकर भरतजी अयश छूटने से निराश होते हैं; पर फिर उन्हें आशा बंधती है और वे कैकेयी से कहते हैं कि ईश मेरा तो अयश हरेंगे, मैं तो मुँह दिखाने लायक हो जाऊँगा; पर तू अपने दिन कैसे काटेगी ? वे समझते हैं कि राम के आते ही मेरा अयश दूर हो जायगा। उनको विश्वास है कि सारा संसार मुझे दोषी माने, पर सुशीलता की मूर्ति राम मुझे 'दोषी नहीं मान सकते। परिहरि राम सीय जग माहीं । कोड न कहहि मोर मत नाहीं।। राम की सुशीलता पर भरत को इतना अविचल विश्वास है ! वह सुशीलता धन्य है जिस पर इतना विश्वास टिक सके; और वह विश्वास धन्य है जो सुशीलता पर इम अविवल भाव से जमा रहे ! भरत की आशा का एक मात्र आधार यही विश्वास है। कौशल्या के सामने जिन वाक्यों द्वारा वे अपनी सफाई देते हैं, उनके एक एक