१०४ गोस्वामी तुलसीदास सुनि सनेहमय मंजुल बानी । सकुचि पीय मन महँ मुसुकानी । तिन्हहिं बिजोकि बि तोकति धरनी। दुहुँ संकोच सकुच ते बर-बरनी।। सकुचि सप्रेम बारमृगनयनी । बोली मधुर बचन पिकबयनी॥ सहज सुभाय सुभा तन गोरे । नाम लपन लघु देवर मोरे । बहुरि बदन-बिधु अंच न ढ की। पिय-नन चिनै भै ह करि बांकी ।। खंजन मंजु निरीछे नैननि निन पति कडेउ निन्दहि सिर मैननि ॥. कुल-वधू की इस अल्प व्यंजना में जो गौरव और माधुर्य है, वह उद्धत प्रेम-प्रलाप में कहाँ ? शोक का चित्रण भी गोस्वामीजी ने अत्यंत हृदय-द्रावक पद्धति से किया है। शोक के स्थल तुल ती वर्णित रामचरित में दो हैं-एक तो अयोध्या में राम-वनगमन का प्रसंग और दूसरा लंका में लक्ष्मण को शक्ति लगने का। राम के वन जाने पर जो दुःख फैला, वह शोक ही माना जायगा; वह पिय का प्रवास-जन्य दुःख मात्र नहीं है। अभिषेक के समर वनवास बड़े दुःख की बात है- कैयनदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह । जेहि रघुनंदन जानकिहिं सुख-अवसर दुख दीन्ह ॥ अत: परिजनों और प्रजा का दुःख राम की दु:ख-दशा समझ- कर भी था, केवल राम का अलग होना देखकर नहीं- राम चरत अति भएउ बिषादू । सुनि न जाइ पुर प्रारत नादू॥ यह विषाद ( जो शोक का संचारी है ) और यह आर्तनाद शोक-सूचक है। प्रिय के दुःख या पीड़ा पर जो दुःख हो, वह शोक है; प्रिय के कुछ दिनों के लिये वियुक्त होने मात्र का जो दुःख हो, वह विरह है। अत: राम के इस दुःखमय प्रवास पर जो दुःख लोगों को हुआ, वह शोक और वियोग दोनों है। "तुलसी राम बियोग-सोक-बस समुमत नहि समुझाए।"
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