तुलसी की भावुकता १०३ हनुमान के प्रकट होने के पहले जानकी उद्विग्न होकर कह रही थीं- . पावकमय ससि त्रवत न ागी । मानहुँ मोहिं जानि हतभागी ।। सुनिय बिनय सम बिटप अशोका । सत्य नान का हरु मम शोका ।। नूतन सिलय अनल समाना । देहि अगिनि जिनि करहि निदाना।। इतना कहते ही हनुमान का मुद्रिका गिराना और सीता का उसे अंगार समझकर हाथ में लेना, यह सब ता गोस्वामीजी ने प्रसन्नराघव नाटक से लिया है। हनुमान को सामने पाकर सीता उसी मर्यादा के साथ अपने वियोग-जनित दुःख की व्यंजना करती हैं जिस मर्यादा के साथ माता पुत्र के सामने कर सकती है। वे पहले 'अनुज सहित' राम का ( अकेले राम का नहीं) कुशल पूछती हैं; फिर कहती हैं- कोमल चित कृपालु रघुराई । कपि, केहि हेतु धरी निठुराई ।। सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥ कबहु नयन मम सीतल ताता । होइहि निरखि स्याम मृदुगाता ॥ प्रिय के कुशल-मंगल के हेतु व्यग्रता भारतीय ललनाओं के वियोग का प्रधान लक्षण है। प्रिय सुख में है या दुःख में है, यह संशय विरह में दया या करुण भाव का हलका सा मेल कर देता भारत की कुल-वधू का विरह आवारा आशिकों-माशूकों का विरह नहीं है, वह जीवन के गांभीर्य को लिए हुए रहता है। यह वह विरह नहीं है जिसमें विरही अपना ही जलना और मरना देखता है; प्रिय मरता है कि जीता है, इससे कोई मतलब नहीं । पवित्र दांपत्य-रति की कैसी मनोहर व्यंजना उन्होंने सीता द्वारा उस समय कराई है जिस समय ग्राम-वनिताओं ने मार्ग में राम को दिखाकर उनसे पूछा था कि "ये तुम्हारे कौन हैं ?" कोटि मनोज लजावनहारे । सुमुखि कहहु को प्राहि तुम्हारे ।। ."
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