तुलसी की भावुकता १०१ स्त्रियाँ राम की ओर लक्ष्य करके सीता से पूछती हैं कि ये तुम्हारे कौन हैं। इस पर सीता- तिन्हहि बिलोकि विलेोकति धरनी । दुहुँ संकोच सकुचति बर-बरनी ॥ 'बिलोकति धरनी' कितनी स्वाभाविक मुद्रा है ! 'दुहुँ सँकोच' द्वारा कवि ने सीता के हृदय की कोमलता और अभिमान-शून्यता भी कैसे ढंग से व्यंजित कर दी है। एक तो राम को खुले शब्दों में अपना पति कहने में संकोच; दूसरा संकोच यह समझकर कि यदि इन भोली-भाली स्त्रियों को कोई उत्तर न दिया जायगा तो ये मन में दुखी होगी और मुझे अभिमानिनी समझेंगी। इसके आगे सीताजी में शृंगारी चेष्टाओं का विधान भी अत्यंत निपुणता और भावुकता के साथ गोस्वामीजी ने किया है- बहुरि बदन-बिधु अंचल ढाकी । पिय-तन चितै भौह करि बाँकी । खंजन मंजु तिरीछे नैननि । निज पति कहेउ तिन्हहिसिय सैननि ।। यदि आम रास्ते पर राम के साथ बातचीत करने में ये चेष्टाएँ दिखाई जाती तो कुल-वधू की मर्यादा का भंग होता और कोई विशेष निपुणता की बात न होती; रूढ़ि का अनुसरण मात्र होता। पर बीच में उन स्त्रियों को डाल देने से एक परदा भी खड़ा हो गया और अधिक स्वाभाविकता भी आ गई। सीता में ये चेष्टाएँ अपने साथ राम के संबंध की भावना द्वारा उत्पन्न दिखाई पड़ती हैं। यदि राम-सीता के परस्पर व्यवहार में ये चेष्टाएँ दिखाई जाती तो 'संभोग शृगार' का खुला वर्णन हो जाता, जो गोस्वामीजी ने कहीं नहीं किया है। अब प्रश्न यह है कि ये चेष्टाएँ 'अनुभाव' होगी या विभावांत- र्गत 'हाव'। हिंदी के लक्षण-ग्रंथों में 'हाव' प्रायः 'अनुभाव' के अंतर्गत रखे मिलते हैं। पर यह ठीक नहीं है। 'अनुभाव' के अंतर्गत केवल आश्रय की चेष्टाएँ आ सकती हैं। 'आश्रय' की
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