१०० गोस्वामी तुलसीदास थोड़ी दूर साथ चलकर उन्होंने जान लिया होगा कि उनका मार्ग 'सुमनमय' ही है। प्रेम के प्रभाव से जंगल में भी मंगल था। सीता को तो सहस्रों अयोध्याओं का सुख वहाँ मिल रहा था- नाह नेह नित बढ़त दिलेोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी । सिय-मन राम-चरन-अनुरागा । अवध-सहस-सम बन प्रिय लागा ॥ परन-कुटी प्रिय प्रियतम संगा । प्रिय परिवार कुरंग-बिहंगा ॥ सासु-ससुर-सम मुनितिय मुनिबर । असन अमिय-सम कंद-मूल-फर ।। अयोध्या से अधिक सुख का रहस्य क्या है ? प्रिय के साथ सहयोग के अधिक अवसर। अयोध्या में सहयोग और सेवा के इतने अवसर कहाँ मिल सकते थे ? जीवनयात्रा की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति वन में अपने हाथों से करनी पड़ती थी। कुटी छाना, स्थान स्वच्छ करना, जल भर लाना, ईधन और कंद- मूल इकट्ठा करना इत्यादि वहाँ के नित्य-जीवन के अंग थे। ऐसे प्राकृतिक जीवन में प्रेम का जो विकास हो सकता है, वह कृत्रिम जीवन में दुर्लभ है। प्रिय के प्रयत्नों में ऐसे ही स्वाभाविक सहयोग की अभिलाषिणी एक प्रामीण नायिका कहती है- भागि लागि घर जरिगा, बढ़ सुख कीन । पिय के हाथ घइलवा भरि भरि दोन ॥ दूसरा कारण इस सुख का था हृदय का प्रकृति के अनेक रूपों के साथ सामंजस्य, जिसके प्रभाव से 'कुरंग-बिहंग' अपने परिवार के भीतर जान पड़ते थे। उस जगज्जननी जानकी का हृदय ऐसा न होगा तो और किसका होगा जिसे एक स्थान पर लगाए हुए फूल-पौदों को छोड़कर अन्य स्थान पर जाते हुए भी दुःख होता था। सीताजी द्वारा श्रृंगार के संचारी भाव 'बीड़ा' की व्यंजना के लिये कैसा उपयुक्त अवसर चुना गया है ! वन के मार्ग में ग्रामीण
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