निगम अगम, साहब सुगम, राम सचिली चाह।
अंबु असन अवलोकियत सुलभ सबै जग माह॥
सरलता इस मार्ग का नित्य लक्षण है—मन की सरलता, की सरलता और कर्म की सरलता——
सूधे मन, सूधे बचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुवर-प्रेम-प्रसूति॥
भारतीय परंपरा के भक्त में दुराव, छिपाव की प्रवृत्ति नहीं होती। उसे यह प्रकट करना नहीं रहता कि जो बातें मैं जानता हूँ उन्हें कोई बिरला ही समझ सकता है, इससे अपनी वाणी को अटपटी और रहस्यमयी बनाने की आवश्यकता उसे कभी नहीं होती। वह सीधी-सादी सामान्य बात को भी रूपकों में लपेटकर पहेली बनाने और असंबद्धता के साथ कहने नहीं जाता। बात यह है कि वह अपना प्रेम किसी अज्ञात के प्रति नहीं बताता। उसका उपास्य ज्ञात होता है। उसके निकट ईश्वर ज्ञात और अज्ञात दोनों है। जितना अज्ञात है उसे तो वह परमार्थान्वेषी दार्शनिकों के चितन के लिये छोड़ देता है और जितना ज्ञात है उसी को लेकर वह प्रेम में लीन रहता है। तुलसी कहते हैं कि जिसे हम जानेंगे, वही हमें जानेगा——
जाने जानत, जोइए, बिनु जाने को जान?
पर पाश्चात्य दृष्टि में भक्ति-मार्ग 'रहस्यवाद' के अंतर्गत ही दिखाई पड़ता है। बात यह है कि पैगंबरी ( यहूदी, ईसाई, इस-लाम ) मतों में धर्म-व्यवस्था के भीतर तत्त्वचिंतन या ज्ञानकांड के लिये स्थान न होने के कारण आध्यात्मिक ज्ञानोपलब्धि रहस्यात्मक ढंग से ( स्वप्न, संदेश, छायादर्शन आदि के द्वारा) ही माननी पड़ती थी। पहुँचे हुए भक्तों और संतों ( Saints ) के संबंध में लोगों की यह धारणा थी कि जब वे आवेश की दशा में मूर्च्छित या बाह्यज्ञानशून्य होते हैं तब भीतर ही भीतर उनका 'ईश्वर के साथ