गोल-सभा सी समझ के साथ जिन दुःखों को मिटाने के लिये तरस रहे हैं, इस गोल-सभा में उनका कोई इलाज नहीं हो सकता । यहाँ यह कहने की तो शायद ही जरूरत हो कि इस मामले में पालमेंट को आखिरी फैसला करने का जो हक़ है, उसे छीन लेने का तो कोई सवाल ही नहीं था। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें मंत्रिमंडल ने इस आशा से कि पार्लमेंट की अनुमति या इजाजत मिलेगी ही, पहले ही से अपनी नीति ठहरा ली थी। इस तरह दिल्ली की मुलाकात का कोई नतीजा न निकलने से सन् १९२८ में कलकत्ते की महासभा ने जो गंभीर प्रस्ताव किया था, उसका अमल कराने की पैरवी करने के सिवा पंडित मोती- लालजी के और मेरे सामने दूसरा कोई रास्ता ही नहीं रह गया था। पर आपकी घोषणा में जिस 'डोमीनियन स्टेटस'-शब्द का जिक्र है, अगर वह शब्द उसके सच्चे अर्थ में प्रयुक्त किया गया होता, तो आज 'पूर्ण स्वराज्य' के प्रस्ताव से भड़कने का कोई कारण ही न था। क्योंकि 'डोमीनियन स्टेटस' का अर्थ लगभग पूर्ण स्वाधीनता ही है । इस बात को प्रतिष्ठित ब्रिटिश-राजनीतिज्ञों ने खुद ही कबूल किया है, और इससे कौन इनकार कर सकता है ? लेकिन मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि ब्रिटिश-राजनीतिज्ञों की यह नीयत ही कभी नहीं थी कि भारतवर्ष को शीघ्र ही 'डोमीनियन स्टेटस' दे दिया जाय । लेकिन ये तो सब गई-गुजरी बातें हैं। आपकी घोषणा के
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