तेरहवां अध्याय साथ केंद्रीय शासन में निश्चित और स्पष्ट परिवर्तन करना होगा। उसे व्यवस्था-सभा के अधीन कर देना पड़ेगा। यहीं यह प्रश्न खड़ा होता है कि आगामी विधान संघात्मक हो या नहीं।" इसी प्रसंग में सर सपू ने देश-भक्त देशी नरेशों से प्रार्थना की कि वे अपने दृष्टिकोण को 'भारत के तृतीयांश' तक ही परिमित न रक्खें। वे और उदार होकर संपूर्ण भारत की एकता को स्वीकार करें। इस संपूर्ण भारत के विविध भाग घरेलू मामलों में स्वतंत्र रहेंगे, पर आपस में संबंधित भीरक्खे जायेंगे। क्या देशी नरेश भारतीय संघ के प्रतिबंधन में बंधने को तैयार हैं ? भारत सरकार इस भारतीय संघ को दूर की वस्तु समझती है, पर हमारे लिये तो यह ज्वलंत प्रश्न अभी सामने आया हुआ है। भविष्य-विधान के संबंध में सर सपू ने कितनी ही कठिनाइयाँ स्वीकार की। आपने कहा-शांति, व्यवस्था, व्यवसाय, अर्थ और योरपियन स्वार्थ आदि के प्रश्न कठिन अवश्य हैं, पर वे इल किए जाने चाहिए। पिछले पचीस वर्षों में जो प्रबल आंदो- लान हुए हैं, उसको समझने में जो ग़लतियाँ की गई हैं, वे भार- तीय मंत्रियों के होते कभी न की जातीं। हम योरपीय व्यवसायियों को हानि पहुँचाने या उनकी पूँजी छीनने का लक्ष्य नहीं रखते। योरपियन हितों की रक्षा के लिये जो माँगें पेश की जायँगी, हम उनका स्वागत करेंगे। अर्थ-विभाग के संबंध में उन्होंने कहा कि अँगरेजों ने तो साम्राज्य के बाहर के छोटे-छोटे देशों तक को कर्ज में बड़ी-बड़ी
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